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*सब गुण रहिता सकल बियापी,* *बिन इंद्री रस भोगी ।*
*दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन जोगी ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २१०)
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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हिलै न चलै१ न पिलै२ न ठिलै२,
ऐसो रोपि रह्यो बलबंड३ विहारी ।
अटै४ न मिट्यो ने बट्यो५ न लुट्यो,
अजु६ माया रु मान गये पचिहारी ॥
हिलायो चलायो डुलायो न डोल ही,
देख हु साधु सुमेरु तैं भारी ।
हो दादू व साधू व आदि अनादि शिरोमणि,
रज्जब देखि भयो बलिहारी ॥४ ॥
कामादि से हिलते नहीं, आशा से चंचल१ नहीं होते, कर्म के धक्के से तथा दुर्जन के ढकेलने२ से अपनी निष्ठा से हटते२ नहीं हैं । ज्ञान बल के बली३ हैं, पृथ्वी पर विचरते हैं किंतु....
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इस समय तो चोकी को पृथ्वी में रोपकर ऐसी स्थित है कि - ये जन्मादि संसार में भ्रमण४ नहीं करते, काल के द्वारा मिटते नहीं । इनका मन विषयों में वितरित५ नहीं होता । इनके ज्ञान धन को कामादि नहीं लूट सके हैं । अजी६ देखो, इनको जीतने के लिये माया और अभिमान पचकर इनसे हार गये हैं ।
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हिलने से हिलते नहीं, चलाने से चलते नहीं, और डुलाने से डुलते नहीं, संत जनों ! देखो तो सही गुरुदेव दादूजी तो आज सुमेरू से भी भारी हो गये हैं ।
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हे संतजनों ! ये दादूजी तो सबके आदि अनादि सबके शिरोमणी ब्रह्मरूप ही हैं । मैं इस समय इनकी महान शक्ति देखकर इन पर बलिहारी जाता हूँ ।
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प्रंसग कथा - नरेना गांव मे एक दिन दादूजी चौकी पर स्नान करके रज्जब जी से बोले - “रज्जब, मेरी खड़ाऊ ले आओ जिससे पैर धूलि में नहीं हो ।” रज्जब बोले ! “आप चौकी पर ही बिराजे रहैं, मैं चौकी सहित ही आपको आसन पर ले चलुंगा । ” दादूजी ने कहा - “नहीं खड़ाऊ ही ले आओ ।” किंतु रज्जब जी ने अधिक आग्रह किया । तब दादूजी ने सोचा इसे बल का धमंड है और उसे तोड़ना मेरा कर्त्तव्य है,फिर वे मौन होकर चौकी पर ही बैठ गये । रज्जब जी ने अपना सब बल लगा दिया किंतु चौकी उठना तो दूर रहा एक तिल भर भी नहीं हिली । तब उक्त सवैया बोलकर चरणों में पड़ गये और क्षमा मांगते हुये खड़ाऊ लाकर चरणों में पहना दी ।
(क्रमशः)

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