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*इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय ।*
*दादू गुरु गोविन्द बिन, तो भी तिमिर न जाय ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*शिष्य करी रु बरी१ नगरी झट,*
*जा पकस्यो सरदार बड़े हैं ।*
*बैठ कहा उर दासि भई हरिव्यास,*
*परो पग मारि गड़े हैं ।*
*भृत्य२ भये सब पाय नये तन,*
*पाप गये भव पार कढ़े हैं ।*
*द्यौस रहे बहु आय श्वपच्च हि,*
*है श्रद्धा हरि भक्ति बढै हैं ॥३८५॥*
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हरिव्यासजी ने देवी की प्रार्थना सुनकर उसे अपनी शिष्या बना लिया । देवी हरिनाम मंत्र दीक्षा लेकर शीघ्र ही उस नगरी में घुसी१ और वहाँ का जो सबसे बड़ा सरदार था उसके घर जाकर उसको पकड़ा ।
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वह खटिया पर सोया हुआ था । उसकी खटिया को उठाकर उसे पृथ्वी पर पटक दिया । फिर उसकी छाती पर बैठकर बोली- मैं तो हरिव्यासजी की दासी शिष्या हो गई हूँ । तुम सब भी यदि उनके चरणों में पड़कर, उनके शिष्य नहीं बनोगे तो सब को मारकर गाड़ दूँगी ।
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देवी की आज्ञा सुनकर ग्राम के सब लोगों ने आकर हरिव्यासजी के चरणों में अपने मस्तक नमाये और सब मंत्रदीक्षा लेकर शिष्य२ बन गये । सबने मांस मदिरादि त्याग दिये । फिर तो हरिभजन से उनके सब पाप नष्ट हो जाने से वे सभी संसार से पार हो गये । हरिव्यासजी वहाँ बहुत दिन रहे ।
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एक दिन एक चांडाल बड़ी श्रद्धा से हरिव्यासजी के पास आया और रक्षा करो रक्षा करो करता हुआ पृथ्वी पर साष्टांग करने लगा । आपने उसको भी नामस्मरण रूप हरि भक्ति का उपदेश दिया । वह भी सप्रेम नाम स्मरण करता हुआ भक्ति मार्ग में आगे बढ़ा और अंत में प्रभु को प्राप्त हुआ ।
(क्रमशः)

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