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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४०. करुणां कौ अंग १/४*
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जगजीवन सनमुख रहै, सदा रांम कर जोड़ि ।
सुरतें करुणा करत हैं, निरबाहौ जो बोड़ि ॥१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हम सदा हाथ जोड़कर आपके सन्मुख रहें आप ध्यान से करुणा करें और उसे पूरा निबाहें ।
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गरीब हरि का गगन६ मंहि, गहिति७ रह्या सो मूल ।
जगजीवन ता कै नहीं, आपा८ अरु अस्थूल९ ॥२॥
{६. गगन=शून्य(ब्रह्म)} (७. गहिति=ग्रहीता=लेने वाला)
(८. आपा=अभिमान) (९. अस्थूल=स्थूल कायिक विकार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दीन जन के लिये शून्य क्या है ? जो वह स्मरण करता है वह ही मूल तत्त्व है ऐसे जन न तो अभिमानी है न ही कायिक विकार वाले होते हैं ।
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कहि जगजीवन देव हरि, हा हा बलि जाऊँ रांम ।
दीन लीन करुणां करै, नख सिख भरिये नांम ॥३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु मैं आपकी बलिहारी हूँ । आप तो करुणा करके इस दीन को प्रभु भक्ति में लीन करके नख से शिख तक स्मरण करवाने की कृपा करें ।
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हा हा करि छूटिए, हरि का बंदा होइ ।
कहि जगजीवन रांम रटि, हेत प्रीति हरि मोहि ॥४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब छोडकर प्रभु की शरण में जब ही आते हो तो प्रभु भी उनपर कृपा करते हैं ।
(क्रमशः)

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