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*आदि अंत मधि एक रस, टूटै नहीं धागा ।*
*दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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आदि अंत मधि एक रस, टूटै नहीं धागा ।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ॥
वह तो परमात्मा का आनंद है, वह सदा समस्वर है। शुरू में भी वैसा, मध्य में भी वैसा, अंत में भी वैसा। उसमें कोई परिवर्तन नहीं है, वह शाश्वत है। उसमें कोई रूपांतरण नहीं है। वह बदलता नहीं है। वह सदा एक-रस है।
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आदि अंत मध्य एक रस टूटै नहीं धागा।
जब तुम्हारा धागा इस एक-रसता से जुड़ जाए और टूटे न, तभी समझना मंजिल आई। उसके पहले विश्राम मत करना। उसके पहले पड़ाव बनाना पड़े, बना लेना। लेकिन जानना कि यह घर नहीं है। रुके हैं रातभर विश्राम के लिए। सुबह होगी, चल पड़ेंगे।
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जब तक ऐसी घड़ी न आ जाए कि उस एकरसता से धागा बंध जाए पूरा का पूरा--टूटै नहीं धागा; तब तक मत समझना मंजिल आ गई। बहुत बार पड़ाव धोखा देते हैं मंजिल का। जरा सा मन शांत हो जाता है, तुम सोचते हो, बस हो गया ! जल्दी इतनी नहीं करना जरा रस मिलने लगता है, आनंद-भाव आने लगता है, सोचते हो, हो गया। इतनी जल्दी नहीं करना। ये सब पड़ाव हैं।
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प्रकाश दिखाई पड़ने लगा भीतर, मत सोच लेना कि मंजिल आ गई। ये अभी भी मन के ही भीतर घट रही घटनाएं हैं। अनुभव होने लगे अच्छे सुखद, तो भी यह मत सोच लेता, कि पहुंच गए। क्योंकि पहुंचोगे तो तुम तभी, दादू एकै रहि गया जब जाणी जागा।
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तब जानेंगे दादू कहते हैं, कि तुम जाग गए, जब एक ही रह जाए। तुम और परमात्मा दो न रहो। अगर परमात्मा भी सामने खड़ा दिखाई पड़ जाए, तो भी समझना, कि अभी पहुंचे नहीं, फासला कायम है। अभी थोड़ी दूरी कायम है। एक ही हो जाओ। दादू एकै रहि गया--अब दो न बचे। जब जाणी जागा--तभी जानना कि जाग गए। तभी जानना, कि घर आ गया।
ओशो

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