शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

*परशुरामजी की पद्य टीका*

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*धरती अम्बर रात दिन, रवि शशि नावैं शीश ।*
*दादू बलि बलि वारणें, जे सुमिरैं जगदीश ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*परशुरामजी की पद्य टीका*
*राज महन्त गयो इक देखन,*
*बोलि कह्यो यह साखि विचारो ।*
*ऊठ चले नग१ जात पवै२ युग,*
*बैठ गुफा हरि नाम उचारो ॥*
*नायक३ आय चढावत संपति,*
*और दिई सुखपाल निहारो ।*
*आय पश्यो पग भाव न जानत,*
*भाव भयो इनको नहिं सारो४ ॥३८६॥*
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एक राजमहन्त परशुरामजी के दर्शन करने गये थे, उनका ठाट-बाट देखकर वे आपकी यह साखी-
*"माया सगी न तन सगा, सगो न यह संसार ।*
*परशुराम या जीव का, सगा सो सिरजनहार" ।*
सुनाकर बोले- इस साखी का विचार कीजिये । इसमें तो आप कहते हैं, केवल ईश्वर जीव का सगा है । फिर आप इस माया को क्यों पकड़े बैठे हैं ? छोड़ दीजिये । एकान्त में जाकर हरि का भजन ही कीजिये । आपने कहा-बहुत अच्छा ।
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फिर एक कौपीन मात्र पहन कर उनके साथ ही चल दिये । नाग१ पहाड़२ की एक गुफा पर पहुँचे । वह स्थान परशुरामजी को बहुत अच्छा लगा । वहाँ ही बैठकर हरिनाम उच्चारण करने लगे ।
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इतने में ही वहाँ एक बणिजारा३ आ गया । वह बहुत- सी सम्पत्ति और एक पालकी परशुरामजी के चरणों में चढ़ाकर उनका शिष्य बन गया । परीक्षा करने वाले महन्तजी यह सब दूर बैठे-बैठे देख रहे थे ।
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आपकी महिमा देख कर वे आपके चरणों में आ पड़े और बोले-"मैं आपका प्रभाव कुछ भी नहीं जानता था, और ही विचार करता था । किन्तु आज प्रत्यक्ष देखकर मेरे मन में विचार उत्पन्न हो आया है कि "यह इनके वश४ की बात नहीं है, इनका प्रारब्ध ही ऐसा है । अब तो मेरे मन में ऐसी तरंग उठती है कि अपने प्राण आपपर निछावर कर दूँ । आप स्थान को पधारिये और मेरी भूल पर क्षमा कीजिये ।"
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परशुरामजी का जन्म जयपुर राज्य में विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में हुआ था । कुछ सज्जन आपको नारनौल निवासी सुदेवजी आदिगौड़ का पुत्र लिखते हैं और जन्म सं० १४४४ का भी बताते हैं । अजमेर के निकट सलेमशाह नामक एक फकीर रहता था । वह हिन्दुओं को अच्छी दृष्टि से नहीं देखता था ।
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साधु-संतों पर अत्याचार करता था । वह अपनी सिद्धियों से लोगों को बहुत हानि पहुँचाता था । अपने गुरु हरिव्यासजी की आज्ञा से परशुरामजी ने उसके पाखंड का अंत करके वहाँ ही आपने राधा-माधव का मन्दिर बनाकर नगर का नाम परशुरामपुर रखा और भगवद्भक्ति का प्रचार किया ।
(क्रमशः)

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