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*देह रहै संसार में, जीव राम के पास ।*
*दादू कुछ व्यापै नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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डाक्टर - मेरा लड़का, यहाँ तक कि मेरी स्त्री भी मुझे निष्ठुर हृदय का मनुष्य समझती है । मेरा दोष केवल इतना ही है कि मैं किसी के पास अपने भाव प्रकट नहीं होने देता ।
गिरीश - तब तो महाशय, आपके लिए यह अच्छा है कि आप अपने हृदय के कपाट खोल दें - कम से कम अपने मित्रों पर कृपा करके - यह सोचकर कि वे आपकी थाह नहीं पा रहे हैं ।
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डाक्टर - अजी कहूँ क्या, तुम्हारे से भी मेरा भाव अधिक उमड़ चलता है । (नरेन्द्र से) मैं एकान्त में आँसू बहाया करता हूँ ।
(श्रीरामकृष्ण से) "अच्छा, भाव के आवेश में तुम दूसरों की देह पर पैर रख देते हो, यह अच्छा नहीं ।"
श्रीरामकृष्ण - मुझे यह ज्ञान थोड़े ही रहता है कि मैं किसी की देह पर पैर रख रहा हूँ ! डाक्टर - वह अच्छा नहीं, इतना तो बोध होता होगा ?
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श्रीरामकृष्ण - भावावेश में मुझे क्या होता है, यह तुमसे कैसे कहूँ ? उस अवस्था के बाद सोचता हूँ कि शायद इसीलिए मुझे रोग हो रहा है । ईश्वर के भावावेश में मुझे उन्माद हो जाता है । उन्माद में इस तरह हो जाता है, मैं क्या करूँ ?
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डाक्टर - ये (श्रीरामकृष्ण) मान गये । अपने कार्य के लिए ये पश्चाताप कर रहे हैं । यह कार्य अन्यायपूर्ण है, यह ज्ञान भी इन्हें है ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से ) - तू तो बड़ा चण्ट है, इसका अर्थ इन्हें समझा क्यों नहीं देता ?
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गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, आपने समझने में भूल की है । उन्हें इस बात का दुःख नहीं है कि उन्होंने समाधि-अवस्था में भक्तों के शरीर को स्पर्श किया । उनका स्वयं का शरीर नितान्त शुद्ध तथा पाप रहित है । वे जो दूसरों को इस प्रकार छूते हैं, यह उन्हीं लोगों के कल्याणार्थ है । कभी कभी उनके मन में यह बात उठती है कि शायद उन लोगों के पाप अपने ऊपर ले लेने के कारण ही उन्हें यह शारीरिक कष्ट हुआ हो ।
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"आप अपनी ही बात सोचिये । एक बार आप को उदरशूल हुआ था । उस समय क्या आप दुःखित नहीं होते थे कि रात को इतनी इतनी देर तक जगकर क्यों पढ़ा ? परन्तु इसका अर्थ क्या यह हुआ कि रात को देर तक पढ़ना कोई बुरी बात है ? इसी प्रकार वे (श्रीरामकृष्ण) भी सम्भव है, दुःखित हों कि वे रुग्ण हैं । परन्तु उससे उनके मन में यह भाव नहीं आता कि दूसरों के कल्याण के लिए उन्होंने उन लोगों को जो स्पर्श किया वह ठीक न था ।"
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डाक्टर कुछ लज्जित से हुए और गिरीश से कहा, 'मैं तुमसे हार गया, अपनी चरण-धूलि मुझे लेने दो ।' (गिरीश के पैरों की धूल लेते हैं) (नरेन्द्र से) 'कोई कुछ कहे, गिरीश की बुद्धिमत्ता को मानना पड़ता है ।"
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नरेन्द्र - (डाक्टर से) - एक बात और देखिये । एक वैज्ञानिक आविष्कार के लिए आप अपने जीवन का उत्सर्ग कर सकते हैं, उस समय अपने शरीर और सुख दुःख पर ध्यान भी न देंगे परन्तु ईश्वर-सम्बन्धी विज्ञान सब विज्ञानों में बड़ा है । तब क्या यह उनके (श्रीरामकृष्ण के) लिए स्वाभाविक नहीं है कि वे ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना शरीर और स्वास्थ्य भी लगा दें ?
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डाक्टर - जितने भी धर्माचार्य हुए हैं - ईशू, चैतन्य, बुद्ध, मुहम्मद इन सब में अन्त अन्त में अहंकार आ गया था – कहा - 'जो कुछ मैं कहता हूँ, वही ठीक है ।' आश्चर्यजनक !
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गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, वही दोष आप पर भी लागू है । आप इन सब पर अहंकार का दोष लगा रहे हैं; आप उनमें बुराई देख रहे हैं । बस इसीलिए तो आप भी अहंकार का दोष लगाया जा सकता है । डाक्टर चुप हो गये ।
नरेन्द्र - (डाक्टर से) - इन्हें जो हम लोग पूजते हैं, वह पूजा मानो ईश्वर की ही पूजा है । इन बातों को सुनकर श्रीरामकृष्ण बालक की तरह हँस रहे हैं ।
(क्रमशः)
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