शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

*४१. साच्छीभूत कौ अंग ५/८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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पांच तत्त्व ए घाट१ घड़ि, खेलत है सब ठांम ।
बिरला पिछांणै कोइ जन, जगजीवन सौ रांम ॥५॥
१. घाट=जीवों के शरीर ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने यह पंच भौतिक शरीर बनाया है और वे सर्वत्र व्याप्त हैं । उन प्रभु को कोइ विरला जन ही जानता है ।
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जगजीवन कहिबौ थक्यौ, मूंन२ गही भजि नांम ।
अंतरजामी बिराजै, घट घट बोलै रांम ॥६॥
२. मूंन=मौन भाव ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कहना सुनना सब हार गये व मौन स्मरण जीत गया । वे प्रभु तो सबके अंतर की जानते हैं और हर ह्रदय में राम ही बोलते हैं ।
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श्रम सब हरि सुमिरण बिनां, जे कछु कीजै आंन ।
कहि जगजीवन देह गुण, लख चौरासी ग्यांन ॥७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु स्मरण के बिना जो कुछ कर रहे है वह.मात्र मेहनत ही है उससे कोइ उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा । इस देह में ही चौरासी लाख योनियों का ज्ञान भरा है ।
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सतगुर बिन श्रम सब करैं, करत न जांणै कोइ ।
कहि जगजीवन  तहँ रहै, ताहि३ पिछांणै सोइ ॥८॥
(३. ताहि=उस की)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब बिना श्रम के ही करते हैं पर उनकी करणी कोइ नहीं जानता है । वे ही सार्थक है जो उन्हें पहचानते हैं ।
(क्रमशः)

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