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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*रूख वृक्ष वनराइ सब, चंदन पासैं होइ ।*
*दादू बास लगाइ कर, किये सुगन्धे सोइ ॥*
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*निहकाम भजन उपदेस कौ अंग ॥*
ज्यूँ तिल बास्या फूल सँगि, युँ हिरदै राम बसाइ ।
बषनां त्याहँ की बासना, जुग जाताँ नहिं जाइ ॥१॥
जिसप्रकार तिल से बना तैल पुष्पादि की सुगंध के साथ सुगंधित तैल/इत्र आदि में परिवर्तित हो जाता है, वैसे ही निष्कामभाव से किया गया भजन-ध्यान हृदय में रामजी का बास करा देता है ।
जिनके हृदय में एकबार रामजी का बास हो जाता है, जिनको स्वात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है; वे अजर अमर हो जाते हैं और उनके बासना = सुगंधि रूपी अमृतोपदेश युग-युगान्तरों तक रहते हैं ॥१॥
मुंडकोपनिषद् में लिखा है “ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति ।” ब्रह्म एक रस रहने वाला है । अतः ब्रह्मविद् भी युगयुगान्तरों तक रहते हैं । अनुभव वाणी उनका वाङमयी स्वरूप होता है ।
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तिल फूलाँ की बास ले, दु काँहठाँ बिचै पिड़ाइ ।
यौं बषनां मन पीड़िये, तौ कबहूँ बास न जाइ ॥२॥
तिल फूलों की सुगंधि को अपने आपमें बसाने के लिये दु काँहठाँ = दो पाटों वाली घाणी में पिरता है, तब कहीं जाकर सुगंधित तैल बनता है । बखनांजी कहते हैं, हे साधकों ! आप भी अपने मन को निष्कामभक्ति और वैराग्य रूपी कोल्हू में पेर डालिये ।
आपका अन्तःकरण इन भक्ति और वैराग्य की सुगंधि से इतना अधिक सुगंधित = निर्मल हो जायेगा कि उसमें रामजी का स्थाई निवास हो जायेगा । मन कभी भी विषयी नहीं बन पायेगा । वृत्ताकार लकड़ी अथवा पत्थर के कोल्हू की दीवारें और उसमें फिरने वाला लकड़ी का गोल दण्ड ही दो पाट हैं ॥२॥
(क्रमशः)

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