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*सत गुरु किया फेरि कर, मन का औरै रूप ।*
*दादू पंचों पलटि कर, कैसे भये अनूप ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर,राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*शोभूरामजी का मूल मनहर*
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*मिलत कमाल प्रतिपाल भये पायो भेद,*
*पल में सकल संशै मेट्यो शोभूराम को ।*
*रोम रोम लागी ध्वनि यूं भयो थकित मुनि,*
*ऐसो प्यालो दियो उन ऐन आठों याम को ॥*
*गगन मगन चित्त पायो है विज्ञान वित,*
*ऐसो भयो निपट कर्तार जी के काम को ।*
*राघो कहै ऐसे रंग लागि गयो जाके अंग,*
*ह्वे गयो पलट दूरि चक्षुन से चाम को ॥२८१॥*
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कबीरजी के पुत्र कमालजी मिले तब शोभूरामजी के रक्षक हुए और शोभूरामजी ने उनसे साधना का रहस्य प्राप्त किया । कमालजी ने क्षणभर में शोभूरामजी के सब संशय मिटा दिये । ऐसा अर्थ प्रथम पाद से निकलता है । हो सकता है आपको कमालजी का सत्संग प्राप्त हुआ हो । किन्तु शोभूरामजी हरिव्यासजी के शिष्य हुए हैं । मूल छप्पय २७५ में शोभूजी का नाम हरिव्यासजी के शिष्यों में आया है और भक्तमालकार भी निम्बार्क संप्रदाय के भक्तों में ही आप की कथा लिख रहे हैं । अतः कमाल शब्द का अर्थ यहाँ 'दक्षता' होता है । दक्षता मान लेने पर अर्थ की संगति ठीक बैठ जाती है ।
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गुरुदेव हरिव्यासजी मिले तब वे आपके रक्षक हुए अर्थात् उपदेश द्वारा संसार क्लेश से आपको बचाया । गुरुजी के उपदेश से आपको परमार्थ में दक्षता प्राप्त हुई । परमार्थ में चतुर हुए तब ही साधना का रहस्य प्राप्त हुआ । गुरुजी ने शोभूराम जी के सम्पूर्ण संशय क्षण भर में मिटा दिये । तब आपके रोम रोम में राम की ध्वनि लग गई ।
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इस प्रकार आप प्रभु के स्वरूप में स्थित होकर मुक्ति भाव को प्राप्त हो गये थे । आपके गुरुदेवजी ने ऐसा प्रभु प्रेम का प्याला आप को प्रदान किया, जिससे आठों पहर प्रभु का साक्षात्कार करने लगे । आपका मन ब्रह्मरूप आकाश में मग्न रहता था, कारण- आपने आत्म विज्ञान रूप धन प्राप्त कर लिया था । फिर तो आप ऐसे बन गये थे कि सर्वथा सृष्टिकर्ता प्रभु की भक्ति रूप काम ही करते कराते थे ।
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राघवदासजी कहते हैं- आप के अंग में प्रभु का ऐसा रंग लग गया था कि जिससे मन का भाव बदलकर नेत्रों की चर्म दृष्टि रूप जो ज्ञान था, उसके स्थान में ब्रह्मदृष्टि स्थिर हो गई, अथवा जिनने आपके अंग का संग किया उनकी भी चर्मदृष्टि(सांसारिक) नष्ट हो गई थी ॥२८१॥
(क्रमशः)

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