मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

*४१. साच्छीभूत कौ अंग ९/१२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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कहि जगजीवन रांमजी, अकर करार समाति ।
ज्यंद४ लगाया जोति सूं, ज्यूं दीपक सौं बाति ॥९॥
(४. ज्यंद=जीवनपर्यन्त)  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आपमें ही सब समिष्ट होते हैं । और ऐसै रहते हैं जैसे दीपक संग ज्योति सदा सर्वदा रहती है ।
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सबै तेल तत प्रेम रस, हरि हरि नांम निवास ।
रांम सुमरि आनंद बधै, सु कहि जगजीवनदास ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारी स्नेहिल स्निग्धता प्रेम व स्मरण में है । स्मरण से ही आनंद में वृद्धि होती है ऐसा संत कहते हैं ।
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सब मंहिं साच्छी रांमजी, पद हरि प्रीतम नांम ।
कहि जगजीवन संस्क्रिति प्राक्रिति, हरि हरि बांणी धाम ॥११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सबके अंतर में हर कर्य के साक्षी परमात्मा स्वयं है । सभी पदों या शब्दों में वे समाये हैं । संस्कृत या प्राकृत भाषा तो उनके स्थान हैं जहां वाणी विराजती है ।
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हरी लोक सालोक५ गुण, साच्छी नांउ निवास ।
कहि जगजीवन पद परमेसुर, संस्क्रति बचन बिलास६ ॥१२॥
{५. सालोक=सालोक्य(शास्त्र में वर्णित चतुर्विध मुक्तियों में एक मुक्ति)} ६. बचनबिलास=वाणी का विस्तार ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु लोक व सालोक्य मुक्ति के भी साक्षी हैं वे स्मरण में विराजमान हैं । संत कहते हैं कि शब्द ही ईश्वर है शेष संस्कृत तो वाणी वैभव है ।
(क्रमशः) 

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