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*कोटि वर्ष क्या जीवना, अमर भये क्या होइ ।*
*प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(५)अहैतुकी भक्ति । श्रीरामकृष्ण का दास्य-भाव*
श्रीरामकृष्ण - ये (डाक्टर) जो कुछ कह रहे हैं, इसका नाम है अहैतुकी भक्ति । महेन्द्र सरकार से मैं कुछ चाहता नहीं - कोई और आवश्यकता भी नहीं है; महेन्द्र सरकार को देखकर ही मुझे आनन्द होता है, यही अहैतुकी भक्ति है । जरा आनन्द मिलता है तो क्या करूँ ?
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"अहल्या ने कहा था, 'हे राम ! यदि शूकर-योनि में मेरा जन्म हो तो उसके लिए भी कोई चिन्ता नहीं, परन्तु ऐसा करना कि तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति बनी रहे । मैं और कुछ नहीं चाहती ।'
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"रावण को मारने की बात याद दिलाने के लिए नारद अयोध्या में श्रीरामचन्द्र से मिले थे । सीता और राम के दर्शन कर वे स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति से सन्तुष्ट होकर श्रीरामचन्द्र ने कहा, ‘नारद, तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ, अब कोई वर की प्रार्थना करो ।' नारद ने कहा, 'राम, यदि मुझे वर दोगे ही तो यही वर दो कि तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्धा भक्ति बनी रहे, और ऐसा करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवन-मोहनी माया में मुग्ध न हो जाऊँ ।'
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राम ने कहा, 'और कोई वर लो ।' नारद ने कहा, 'मैं और कुछ भी नहीं चाहता, मुझे केवल तुम्हारे चरण-कमलों में शुद्धा भक्ति चाहिए ।'
"इनका भी वही हाल है, जैसे ईश्वर को ही देखने की प्रार्थना करते हैं; देह-सुख, धन और मान यह कुछ नहीं चाहते । इसी का नाम शुद्धा भक्ति है ।
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"आनन्द कुछ होता है जरूर, परन्तु वह विषय का आनन्द नहीं है । यह भक्ति और प्रेम का आनन्द है । शम्भु ने कहा था, ‘आप मेरे यहाँ अक्सर आते हैं, और यदि असल में देखा जाय तो आप इसीलिए आते हैं कि आपको मुझसे बातचीत करने में आनन्द आता है ।’
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हाँ, इतना आनन्द तो है ही । "परन्तु इससे बढ़कर एक और अवस्था है । तब साधक बालक की तरह इधर-उधर घूमता है - इसका कोई कारण नहीं । कभी एक पतिंगे को ही पकड़ने लगता है ।
(भक्तों से) "इनके (डाक्टर के) मन का भाव क्या है, तुमने समझा ? वह है ईश्वर से यह प्रार्थना कि ‘हे ईश्वर, सत्कर्म में मेरी मति हो, असत् कर्म से बचा रहूँ ।’
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"मेरी भी वही अवस्था थी । इसे दास्य-भाव कहते हैं । मैं 'माँ, माँ' कहकर इतना रोता था कि लोग खड़े हो जाते थे । मेरी इस अवस्था के बाद मुझे बिगाड़ने के लिए और मेरा पागलपन अच्छा कर देने के विचार से एक आदमी मेरे कमरे में एक वेश्या ले आया - वह सुन्दरी थी, आँखें बड़ी बड़ी थीं ।
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मैं 'माँ, माँ' कहता हुआ कमरे से निकल आया और हलधारी को पुकारकर कहा, ‘दादा, आओ देखो तो, मेरे कमरे में कोई है !’ हलधारी तथा अन्य लोगों से मैंने कह दिया । इस अवस्था में 'माँ, माँ' कहकर मैं रोता था और कहता था, 'माँ ! मुझे बचा; माँ, मुझे निर्दोष कर दे; सत् को छोड़ असत् में मेरा मन न जाय ।’ तुम्हारा यह भाव तो अच्छा है - सच्चा भक्ति-भाव है दास-भाव ।
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"यदि किसी में शुद्ध सत्व आता है, तो बस वह ईश्वर की ही चिन्ता करता रहता है, उसे फिर और कुछ अच्छा नहीं लगता । कोई कोई प्रारब्ध के बल से जन्म के आरम्भ से ही सत्त्व गुण पाते हैं । कामनाशून्य होकर यदि कर्म करने का यत्न किया जाय, तो अन्त में शुद्ध सत्त्व का लाभ होता है ।
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“रजोमिश्रित सत्त्व गुण रहने से मन भिन्न भिन्न वस्तुओं की ओर खिंच जाता है । तब 'मैं संसार का उपकार करूँगा' यह अभिमान उत्पन्न होता है । मनुष्य जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए संसार का उपकार करना बहुत ही कठिन है, परन्तु निष्काम भाव से परहित करने में दोष नहीं । यही निष्काम कर्म कहलाता है ।
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उस तरह के कर्म करने की चेष्टा करना बहुत अच्छा है । परन्तु सब लोग नहीं कर सकते, बड़ा कठिन है । सभी को कार्य करना ही होगा, दो-एक आदमी ही कर्मों को छोड़ सकते हैं । दो-एक आदमियों में ही शुद्ध सत्त्व देखने को मिलता है । यह निष्काम कर्म करते करते रज से मिला हुआ सत्व गुण क्रमशः शुद्धसत्त्व हो जाता है ।
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“शुद्धसत्त्व होने पर उनकी कृपा से ईश्वर-प्राप्ति भी होती है ।
“साधारण आदमी शुद्धसत्त्व की यह अवस्था नहीं समझ सकते । हेम ने मुझसे कहा था, ‘क्यों भट्टाचार्य महाशय, संसार में सम्मान की प्राप्ति ही मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है – क्यों ?’ ”
(क्रमशः)

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