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*केते पारिख अंत न पावैं, अगम अगोचर मांही ।*
*दादू कीमत कोई न जानै, खीर नीर की नांही ॥*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
नौ लख तारों को तेज गयो चलि,
एक ही सूर की ताबहिं१ देखत ।
कोटिक गाय गई जु दशों दिशि,
एक हि सिंह की आँखिहु पेखत२ ॥
बाजे अनेक गये सुन वे सौं जु,
एक हिं इन्द्र की घोर३ हि लेखत४ ।
यूं लोक अनेक अकेले हैं दादूजी,
हो एक हिं अंट घने खत५ छेकत६ ॥६॥
जैसे एक ही सूर्य के प्रकाश१ से नौ लाख तारों का प्रकाश छिप जाता है ।
एक ही सिंह की आँखे देखकर२ कोटिन गाय दशों-दिशाओं मे भाग जाती हैं ।
एक ही इन्द्र की गर्जना३ से देखते देखते४ अनेक बाजे सुनने से रह जाते हैं ।
एक ही लेखनी का अंट अनेक पत्र५ लिख६ डालता है । वैसे ही दादूजी की विशेषता से अनेक लोको की विशेषता छिप जाती है ।
(क्रमशः)

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