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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*काहे रे बक मूल गँवावै,*
*राम के नाम भलें सचु पावै ॥टेक॥*
*वाद विवाद न कीजे लोई,*
*वाद विवाद न हरि रस होई ।*
*मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं,*
*मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥१॥*
*हार जीत सौं हरि रस जाई,*
*समझि देख मेरे मन भाई !*
*मूल न छाड़ी दादू बौरे,*
*जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥२॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. २७९)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(५)स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण*
श्याम बसु - क्या कोई सूक्ष्म शरीर को दिखला सकता है ? क्या कोई यह दिखला सकता है कि वह शरीर बाहर चला जाता है ?
श्रीरामकृष्ण - जो सच्चे भक्त हैं, उन्हें क्या गरज कि वे तुम्हें यह सब दिखलायें ? कोई साला माने या न माने, उनका इससे क्या बनता-बिगड़ता है ! उनमें इस तरह की इच्छा नहीं रहती कि कोई बड़ा आदमी उन्हें माने ।
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श्याम बसु - अच्छा, स्थूल देह, सूक्ष्म देह, इन सब में भेद क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - पंचभूत को लेकर जो देह है, वही ‘स्थूल देह’ है । मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को लेकर ‘सूक्ष्म शरीर’ है । जिस शरीर से ईश्वर का आनन्द मिलता है और ईश्वर से सम्भोग किया जाता है, वह ‘कारण शरीर’ है । तन्त्रों में उसे ‘भगवती तनु’ कहा है । सब से अतीत है ‘महाकारण’ (तुरीय), यह मुख से नहीं कहा जा सकता ।
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"केवल सुनने से क्या होगा ? कुछ करो भी ।
"भंग-भंग रटने से क्या होगा ? उससे क्या कभी नशा हो सकता है ?
"भंग को कूटकर देह में लगाने से भी नशा नहीं होता । कुछ खाना चाहिए । कौनसा सूत चालीस नम्बर का है, और कौनसा इकतालीस नम्बर का, यह सब सूत का व्यवसाय बिना किये क्या कभी कहा जा सकता है ?
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जिनका सूत का व्यवसाय है उनके लिए सूत की पहचान करना कोई कठिन बात नहीं । इसीलिए कहता है, कुछ साधना करो, तब स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण किसे कहते हैं, यह समझ सकोगे । जब ईश्वर से प्रार्थना करोगे तब उनके पादपद्मों में केवल भक्ति की प्रार्थना करना ।
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"अहल्या के शापमोचन के बाद श्रीरामचन्द्र ने उससे कहा, 'तुम मुझसे कोई वर- याचना करो ।' अहल्या ने कहा, 'राम, यदि वर देना ही है, तो यही वर दो कि चाहे शूकर-योनि में भी मेरा जन्म क्यों न हो, फिर भी तुम्हारे पादपद्मों में मेरा मन लगा रहे ।'
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“मैंने माता के पास एकमात्र भक्ति की प्रार्थना की थी । श्री माता के पादपद्मों में फूल चढ़ाकर हाथ जोड़ मैंने कहा था - 'माँ, यह लो तुम अपना ज्ञान और यह लो अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपनी शुचिता और यह लो अपनी अशुचिता, मुझे शुद्धा भक्ति दो; यह लो अपना पाप और यह लो अपना पुण्य; यह लो अपना भला और यह लो अपना बुरा, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना धर्म और यह लो अपना अधर्म, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।’
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“धर्म अर्थात् दानादि कर्म, धर्म को लेने ही से अधर्म को लेना होगा, पुण्य को लेने ही से पाप को लेना होगा, ज्ञान को लेने ही से अज्ञान को लेना होगा, शुचिता को लेने ही से अशुचिता को भी लेना होगा । जैसे, जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । जिसे एक का ज्ञान है, उसे अनेक का भी ज्ञान है । जिसे भले का विचार है, उसे बुरे का भी है ।
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"यदि शूकर का माँस खाकर भी ईश्वर के पादपद्मों में किसी की भक्ति हो, तो वह पुरुष धन्य है । और यदि हविष्य भोजन करके भी संसार में आसक्ति रही—”
डाक्टर - तो वह अधम है । यहाँ एक बात कहता हूँ । बुद्ध ने शूकर-माँस खाया था । शूकर-माँस खाया नहीं कि पेट में शूल होने लगा ! इस बीमारी में बुद्ध अफीम का सेवन करते थे ! निर्वाण-सिर्वाण जानते हो क्या है ? - बस अफीम खाकर पीनक में पड़े रहते थे - बाह्य संसार का कुछ ज्ञान नहीं रहता था, - यही निर्वाण हो गया !
बुद्धदेव के निर्वाण की यह अनोखी व्याख्या सुनकर सब लोग हँसने लगे । फिर दूसरी बातचीत होने लगी ।
(क्रमशः)

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