बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

*यह व्यक्ति मनुष्य है या ईश्वर*

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*दादू मन ही मांहैं ऊपजै, मन ही मांहि समाइ ।*
*मन ही मांहैं राखिये, बाहर कहि न जनाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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इसी समय श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष आ गये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चरणों की धूलि धारण कर आसन ग्रहण किया । उन्हें देखकर डाक्टर को प्रसन्नता हुई, वे फिर बैठ गये ।
डाक्टर - मेरे रहते रहते ये नहीं आयेंगे ! ज्योंही चलने का समय आया कि आकर हाजिर हो गये ! (सब हँसते हैं)
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गिरीश के साथ डाक्टर की विज्ञान-सभा (Science Association) - सम्बन्धी बातें होने लगीं ।
श्रीरामकृष्ण - मुझे एक दिन वहाँ ले चलोगे ? डाक्टर - आप अगर वहाँ जायेंगे तो ईश्वर की आश्चर्यपूर्ण कारीगरी देखकर बेहोश हो जायेंगे ।
श्रीरामकृष्ण – हँ ?
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डाक्टर - (गिरीश से) - और चाहे सब काम करो, पर ईश्वर समझकर इनकी पूजा न किया करो । ऐसे भले आदमी को क्यों बिगाड़ रहे हो ?
गिरीश - क्या करूँ महाशय ? जिन्होंने इस संसार - समुद्र और सन्देह - सागर से मुझे पार किया, उन्हें और क्या मानूँ बतलाइये । उनमें ऐसी एक भी चीज नहीं है जिसे मै पवित्र न मानूँ । उनकी विष्ठा तक को तो मैं गन्दी नहीं मानता ।
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डाक्टर - मैं विष्ठा के लिए नहीं कहता; मुझे भी उससे घृणा नहीं है । एक दिन एक दूकानदार अपने बच्चे को दिखाने मेरे पास आया था । उस बच्चे ने वहीं टट्टी कर डाली । सब लोग कपड़े से नाक ढकने लगे । मैं वहीं बाजू से आध घण्टे बैठा रहा, पर नाक में कपड़ा तक न लगाया । फिर, जब मेहतर मैले की टोकरी लिये मेरे पास से निकल जाता है, तब भी मैं अपना नाक नहीं ढकता ।
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मैं जानता हूँ, वह जो है मैं भी वही हूँ - मुझमें और उसमें कोई अन्तर नहीं । तब फिर उस पर क्यों घृणा करूँ ? क्या मैं इनके पैरों की धूलि नहीं ले सकता ! - यह देखो - (श्रीरामकृष्ण की पद-धूलि धारण करते हैं ।)
गिरीश - इस शुभ मुहूर्त पर देवदूत भी बधाई दे रहे हैं !
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डाक्टर - तो पैरों की धूल लेने में इतना आश्चर्य क्या है ? मैं तो सब के पैरों की धूल ले सकता हूँ । दीजिये, दीजिये - (सब के पैरों की धूलि लेते हैं ।)
नरेन्द्र - (डाक्टर से) - इन्हें हम लोग ईश्वर की तरह मानते हैं । जैसे उद्भिद् और जीव-जन्तुओं के बीच में कुछ ऐसे जीवधारी होते हैं जिन्हें उद्भिद् या जन्तु बतलाना मुश्किल है, उसी तरह नर-लोक और देव-लोक के बीच में एक ऐसा स्थल है जहाँ यह बतलाना कठिन है कि यह व्यक्ति मनुष्य है या ईश्वर ।
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डाक्टर - अजी, ईश्वर की बात पर उपमा नहीं काम करती ।
नरेन्द्र - मैं ईश्वर तो कह नहीं रहा, ईश्वर-तुल्य मनुष्य कह रहा हूँ ।
डाक्टर - अपने इस तरह के भावों को दबा रखना चाहिए, खोलना अच्छा नहीं । मेरा भाव किसी ने नहीं समझा । मेरे परम मित्र मुझे घोर निर्दयी समझते हैं । और तुम्हीं लोग शायद एक दिन मुझे जूतों से मारकर भगा दोगे ।
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श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - यह क्या कहते हो ? ऐसा मत कहो । ये लोग तुम्हें कितना प्यार करते हैं ! नववधु जिस उत्सुकता से शयन-गृह में पति की प्रतीक्षा करती है, उसी उत्सुकता से ये लोग तुम्हारे आने की बाट जोहते रहते हैं !
गिरीश - (डाक्टर से) - सब लोगों की आप पर अत्यन्त श्रद्धा है ।
(क्रमशः)

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