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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू शीतल जल नहीं, हिम नहिं शीतल होइ ।*
*दादू शीतल संत जन, राम सनेही सोइ ॥*
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हरिजन आवत देषि करि, ठरी हमारी देह ।
बषनां बलती ऊपरै, दूधाँ बूठाँ मेह ॥५॥
हरिजन = परमात्मा को प्राप्त साधु-महात्माओं के आगमन होने पर हमारी देह = अन्तःकरण, ठरी = शीतल = त्रिताप रहित हो गया । ऐसे साधु महात्माओं का आगमन ठीक उसीप्रकार त्रितापों (आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक) से संतप्त साधक को आत्मिक आनंद से सरावोर कर देता है, जैसे चूल्हे में जलती अग्नि को अग्नि के ऊपर गर्म हो रहा दूध उफनकर शांत कर देता है ॥५॥
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बषनां अस्थन धेन कै, दोई बिलगा जाइ ।
जिसका था तिसकौं मिल्या, लागा था जिस भाइ ॥६॥
धेनुं = गाय के स्तनस्थ दूध को पीने के लिये दो वत्स दौड़े और दोनों ही अपने-अपने हिस्से के स्तनों में बिलगा = लगकर दूध पीने लगे । जो जिस भाव से पीने पहुँचा था, उस को उसी के भावानुसार उतना ही और वैसा ही मिला ॥
यहाँ दो वत्स दो प्रकार के मनुष्य हैं एक सांसारिक भोग-विलास चाहने वाले, दूसरे परमात्म-प्राप्ति चाहने वाले । गाय परब्रहम परमात्मा रूप है । जो उसको जिस भाव से भजता है, परमात्मा उसको वही दे देता है । दादूजी महाराज ने कहा है ~
“जिसकी सुरति जहाँ रहै,
तिसका तहाँ बिसराम ।
भावै माया मोह में, भावै आत्मराम ॥”
गीता में भी कहा है
“ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भज्याम्यह”
“न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये ।
भावो हि विद्यते देवो तस्माद्भावो हि कारणम् ॥६॥
श्रीदादू बचन प्रमाण ॥
दादू इक निर्गुण इक गुणमई, सब घटि ये द्वै ग्यान ।
काया का माया मिलै, आतम ब्रह्म समान ॥१८/१३॥
सभी घटि = शरीर = मनुष्यों में दो प्रकार का ज्ञान रहता है । एक निर्गुण = आत्मासम्बन्धी तथा दुसरा सगुण-माया सम्बन्धी । जिन्हें माया सम्बन्धी ज्ञान होता है, वे माया को मिलते हैं अर्थात् पुनः पुनः जन्मते मरते रहते हैं, जिन्हें आत्मज्ञान होता है वे ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं, आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं ।
“यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेवविद्धाम्यहम् ॥२१॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान् ॥२२॥
भेष बिन साध कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ७५॥साषी १३६॥
(क्रमशः)

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