सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

*श्री रज्जबवाणी सवैया ~ ७*

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*घट परिचै सेवा करै, प्रत्यक्ष देखै देव ।*
*अविनाशी दर्शन करै, दादू पूरी सेव ॥*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
मन से मयमंत१ उछोर२ आकाश को,
फेरि परे नहिं ऐसे ते नाखे३ ।
नौ कुली नाग ज्यों कीलि करंड में,
ऐसे प्रकार इन्द्री अहि४ राखे ॥
शरीर सरोवर सूर ज्यों शोखे,
मनो दरियाव अगस्त ज्यों चाखे ।
हो दादू दयाल कहूं कुन५ ऊपम६,
मेरे विचार बयन्न७ मैं भाखे ॥७॥
जिनने साधक जनों के मन रूप मस्त१ हाथियों को ब्रह्मरूप आकाश में उछाला२ है, वे पुन: माया रूप पृथ्वी में नहीं पड़ सकें, इस प्रकार उनको ब्रह्म में डाला३ है । नागों के नौ कुलों में उत्पन्न सर्पों४ को कील कर करड़ में रखते हैं वैसे ही जिनने इन्द्रियों को अपने अधीन रक्खा है ।

जैसे समुद्र को अगस्त्य ने पान करके सुला दिया था और जैसे सूर्यजल को सुखा देतै हैं, वैसे ही शरीर वासना जल को सुखा देते हैं । हे सज्जनों उन दादूदयाल जी को मैं कौन-सी५ उपमा६ कहूं, मैंने मेरे विचारों के अनुसार ही वचन७ कहे हैं ।
(क्रमशः)

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