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*दादू जे तूं जोगी गुरुमुखी, तो लेना तत्त्व विचार ।*
*गह आयुध गुरु ज्ञान का, काल पुरुष को मार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अहोभाव
उदास हैं आस्मां के तारे बुझे-बुझे हैं सभी नजारे
हसीं बहारें भी रो रही हैं लुटा है यूँ मेरा आशियाना ...
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यह अनुभव सभी का है। यह अनुभव संसार का है। यहाँ सिर्फ आदमी लुटता है, उजडता है, बसता नहीं। यहाँ बसने का कोई उपाय नहीं। यह बस्ती नहीं है, मरघट है। यहाँ सिर्फ मृत्यु के लिये प्रतीक्षा में खड़े हुए लोग हैं--पंक्तिबद्ध। आएगी जब घड़ी, उठ जाएँगे। कभी भी आ सकती है घड़ी।
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यों तो उसी दिन आ गयी जिस दिन जन्म हुआ। जन्म के साथ-ही -साथ मौत आ गयी छाया की भाँति। जिसका जन्म हुआ, अब मृत्यु से न बच सकेगा। जन्म में ही मृत्यु निश्चित हो गयी, थिर हो गयी। जहाँ मृत्यु ही घटनी है, जहाँ उजडना ही है, वहाँ जो बसने का ख्याल रखते हैं, वे नासमझ हैं। और जहाँ सिर्फ एक ही बात निश्चित है और सब अनिश्चित है, जहाँ सिर्फ मृत्यु निश्चित है, वहाँ जो घर बनाते हैं, वे व्यर्थ ही बनाते हैं।
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यह घर उजडेगा। और इस घर के बनाने में पीड़ा उठायी, फिर इस घर के उजड़ने में पीड़ा उठानी पड़ेगी। यहाँ पीड़ा-ही-पीड़ा है। यहाँ दुख-ही-दुख है। संसार दुख का सागर है। ऐसा जिसे अनुभव होता है, वही परमात्मा की तलाश में निकलता है। जिसने इस घर को ही असली घर समझ लिया, फिर उसकी खोज बंद हो गयी।
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जिसे दिखायी पड़ा कि यह नीड़ असली नीड़ नहीं है, असली नीड़ की तलाश करनी है अभी, ज्यादा-से-ज्यादा सराय है, रात भर को रुक गये हैं, सुबह हुए चलना पड़ेगा; पड़ाव है ज्यादा से ज्यादा, मंजिल नहीं है यह, उनके जीवन में अज्ञात की तलाश शुरू होती है। उस अज्ञात को हम जो भी नाम देना चाहे दें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, सत्य कहें, समाधि कहें, ये सिर्फ नामों के भेद हैं।
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लेकिन इनकी खोज के पहले यह अनिवार्य है अनुभव हो जाना कि यहाँ घर बन नहीं सकता। यहाँ घोंसले बिगड़ेने को ही बनते हैं। यहाँ सब आशियाने उजड़ जाते हैं। उजड्ना यहाँ का स्वभाव है। बसना धोखा है, उजड्ना सचाई है। बसना भ्रांति है। थोड़ी-बहुत देर कोई सपना देख सकता है बसने का, लेकिन सपने सपने हैं। कितनी देर भुलाए रखोगे अपने को सपने में? जो जितनी जल्दी सपने को सपने की भाँति देख ले, उतना बुद्धिमान है।
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कोई युवावस्था में देख लेता है, कोई बुढ़ापे तक में नहीं देख पाता। तुम्हारी बुद्धिमत्ता की एक ही कसौटी है-- जितने जल्दी तुम यह देख लो कि यह कागज की नाव है जिसमें तुम बैठे हो, यह डूबेगी, अब डूबी, तब डूबी; और यह रेत पर बनाया गया घर है, यह गिरेगा, अब गिरा, तब गिरा। इसके पहले कि घर गिर जाए, जो इस घर से मुक्त हो जाता है, इस घर के लगाव से मुक्त हो जाता है, मोह से मुक्त हो जाता है, उसके जीवन में एक किरण उतरती है- परमात्मा की खोज शुरू होती है।
ओशो
संतो मगन भया मन मेरा # 13

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