गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

*४१. साच्छीभूत कौ अंग १/४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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सब देखै अरु सबै पिछांणै, सब जांणैं मांहि ।
कहि जगजीवन सब भोगता४, लिपै छिपै कहुं नांहि ॥१॥
(४. भोगता=कर्मफल को भोगने वाला)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर सब देखते और सब पहचानते हैं । वे सब अंतर की जानते हैं हम सब कर्मफल भोगने वाले उनसे कहीं छिप नहीं सकते उन तक सब उजागर है वे अच्छी तरह जानते हैं ।
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जा की ए सब साहिबी५, सो साहिब सब मांहि ।
जगजीवन अैसैं रहै, कोई जांणै नांहि ॥२॥
(५. साहिबी=स्वामित्व)
संतजगजीवन जी कहते हैं जिनकी यह सब सत्ता है वे स्वयं सब में रहते हैं । और ऐसे रहते हैं कि कोइ जान नहीं पाता है ।
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एही हरि मंडाण करि, पूरि रहे सब ठांम ।
बिरला पिछांणै कोइ जन, जगजीवन सौ राम ॥३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने सब रचा है । और सबकी पूर्ति भी कर रहे हैं । उनकी लीला को कोइ विरला जन ही समझता है ।
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जे न करै सोई करै, करै सो न करै काम ।
कहि जगजीवन सकल हरि, अकल अकरता रांम ॥४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु जो कोइ नहीं कर सकता वह वे करते हैं । कर्ता हो कर भी कोइ कामना नहीं रखते हैं । वे सवर्त्र है । फिर भी वे कर्ता भाव से परे अकर्ता ही हैं ।
(क्रमशः)

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