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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*मन निर्मल थिर होत है, राम नाम आनंद ।*
*दादू दर्शन पाइये, पूरण परमानन्द ॥*
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तिली बिचारी तप कियौ, तप घणि काढ्यौ तेल ।
फूल साध का सँग हुवा, तौ निकस्या नाँव फुलेल ॥५॥*१
(*१. यह साखी मंगलदासजी स्वामी द्वारा संपादित पुस्तक में नहीं है जबकि वि. स. १७८० व १७८५ में लिखित दोनों ही पुस्तकों में हैं ।)
पुराने समय में जब घाणी में पेरकर तैल निकाला जाता था तब तिल तो घाणी में डाले ही जाते थे एक कपड़े में आग लगाकर उसे भी घाणी में और डाला जाता था ।
“घाणी घाल रु पेलिये माहीं अगनि लगाय” (श्रीरामचरण वाणी) इसी तथ्य की ओर बषनांजी संकेत करते हुए कहते हैं – बेचारी तिल्ली ने प्रथमतः काफी तप करके = ताप प्राप्त करके तैल का रूप प्राप्त किया किन्तु जैसे ही उसका फूलों से संसर्ग हुआ, वह तैल न रहकर फुलेल = इत्र हो गयी और सबको प्रिय लगने लगी ।
ठीक इसी प्रकार प्रारम्भिक अवस्था में तिल रूपी साधु-साधक साधना के क्षेत्र में अनेकों कष्ट सहन करता है किन्तु जैसे ही उसे ब्रहमनिष्ठ संत-महात्माओं का संग मिलता है, वैसे ही वह ब्रह्मनिष्ठ होकर पूज्य और जीवन्मुक्त हो जाता है ॥५॥
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*जिग्यासी कौ अंग ॥*
साध कवल घट केवड़ा, माहिं बास सरुपी राम ।
तिलाँ सरीखा सिष मिल्याँ, तौ बषनां सौंर्या काम ॥६॥
साधु कमल-पुष्प की भाँति है । अन्तःकरण केवड़े की तरह है । रामजी सुगंधि है । अन्तःकरण रूपी केवड़े में रामजी रूपी सुगंधि है । यदि कोई शिष्य तिल सदृश हो और रामजी रूपी सुगंध को ग्रहण करले तो उसे इत्र रूपी ब्रह्मनिष्ठ साधक बनने में तनिक भी देर न लगे ।
बषनांजी कहते हैं, यदि ऊपर कहे अनुसार सारे संयोग आ उपिस्थित हों तो समझिये सारे काम सौंर्या = सहज में ही सँवर गये=संपन्न हो गये ॥६॥
इति साध कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ७९॥साषी १४२॥*२ (*२. यह अंग मंगलदासजी स्वामी द्वारा संपादित पुस्तक और वि. स. १७८० में लिखी पुस्तक दोनों में ही नहीं है ।
(क्रमशः)

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