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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू नेड़ा परम पद, साधु जन के साथ ।*
*दादू सहजैं पाइये, परम पदार्थ हाथ ॥*
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*साध कीरति कौ अंग ॥*
जे घट बिणसै साध का, तौ अमरबेलि इक थाइ ।
जे कसतुरी बीकणैं, तौ डाबै बास न जाइ ॥३॥
*यह साखी मंगलदासजी स्वामी द्वारा संपादित पुस्तक में नहीं है जबकि वि.स.१७८० व १७८५ में लिखित दोनों ही पुस्तकों में है ।
साधक साधु का अंतःकरण विनष्ट हो जाने पर भी उसे लेशमात्र की भी हानि नहीं होती क्योंकि उसमें एक अमरबेल उग आती है । यहाँ पर अन्तःकरण में से संसार तथा संसार के राग का उच्छेद हो जाना ही अन्तःकरण का विनष्ट होना है ।
रामजी की अखण्ड, अहैतुकीभक्ति का उत्पन्न हो जाना ही अन्तःकरण में अमरबेल का उग आना है । उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं, जिसप्रकार जिस डिब्बे में कस्तूरी रखी जाती है, उस कस्तूरी के बिक जाने पर भी वह डिब्बा कस्तूरी की सुगंध से सुगंधित रहता ही है, ऐसे ही एकबार अन्तःकरण में निष्कामभक्ति के उदय हो जाने पर अन्तःकरण कभी भी संसारी नहीं बनता है । उसमें सदैव के लिये रामजी का ही निवास हो जाता है ॥३॥
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*सतसंगति लाभ कौ अंग ॥*
सोई तिल दीवै बलै, सो फूलौं मैं मेल ।
बषनां संगति थैं हुवा, तिल का तेल फुलेल ॥४॥
वही तिल तैल बनकर दीपकों में जलता है और वही तिल फूलों में मिलकर सुगंधित इत्र बनता है । वस्तुतः तिल तो एक ही वस्तु है किन्तु अलग-अलग संगति के कारण अलग-अलग वस्तु बन जात है । फूलों की संगति के कारण तिल इत्र बनता है । ऐसे ही ब्रह्मसाक्षात्कारी साधुसंतों की संगति से ही साधक ब्रह्म बनता है ॥४॥
(क्रमशः)

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