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*दादू बुरा न बांछै जीव का, सदा सजीवन सोइ ।*
*परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*हरिव्यासजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*हो चटथावल गांव उपै-वन१,*
*राग२ भयो इत पाक बनावैं ।*
*मठ्ठ द्रुगा बकरा किन मारहि,*
*देखि गलानि भई नहिं पावैं ॥*
*भूख सही निशि मात भई वश,*
*देह धरी नइ आय लखावैं ।*
*भोग करो हिर कौन करै परि,*
*माफ करो कर शीश धरावैं ॥३८४॥*
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हरिव्यासजी संत मण्डल के साथ विचरते हुए पंजाब प्रान्त के 'चटथावल' नामक ग्राम में आये । वहाँ एक सुन्दर बगीचा देखकर आपका मन प्रसन्न हुआ । तब साथ के संतों को कहा- "यह अच्छा स्थान है, यहाँ ही रसोई बनाकर भगवान् के भोग लगाना चाहिये ।" आपकी आज्ञा सुनकर सब संत वहाँ ही ठहर गये । जप, पूजन आदि नित्य नियम करके भोजन की सामग्री तैयार करके रसोई बनाने का विचार किया ।
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इतने में ही किसी ने वहाँ के देवी के मंदिर में बकरा मारकर देवी के चढ़ाया । यह देखकर दयालु संतों को अति ग्लानि हुई । इससे संतों ने निश्चय किया- "यहाँ प्रसाद पाने की बात तो दूर रही, जल भी नहीं पीना चाहिये ।" सब संतों के साथ हरिव्यासजी भूखे ही रहे गये । रात्रि हो गई तब संतों के भूख के दुःख से देवी को भी बड़ा दुःख हुआ ।
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वह संतों के अधीन हो गई और एक नव शरीर धारण करके आयी । संतों का दर्शन करके प्रेम और नम्रता से बोली-"संतो ! आप लोग भूखे ही क्यों पड़े हो ? रसोई बनाकर हरि के भोग लगा कर जीमते क्यों नहीं हो ?"
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हरिव्यासजी ने कहा- "इस देवी और देवी के भक्तों की हिंसा देखकर मन में अत्यन्त ग्लानि हो गई है । इससे अब यहाँ रसोई कौन करेगा ?" देवी उन के चरणों में पकड़कर बोली "वह देवी मैं ही हूँ, मेरे पूर्व दोषों पर क्षमा कीजिये और अब मेरे शिर पर हाथ रख कर मुझे अपनी शिष्या कीजिये । फिर रसोई करके भगवान् के भोग लगाकर पाइये और पवाइये ।"
(क्रमशः)

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