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*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।*
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥*
*हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।*
*विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ज्ञान निश्चय ही मुक्ति है, लेकिन वह ज्ञान नहीं है जो दूसरों से हमें उपलब्ध होता है। जो ज्ञान मन के भीतर जन्मता है, मन की चेतना में आविर्भूत होता है, वह निश्चय ही मुक्ति है। लेकिन वह ज्ञान, जो हम दूसरों से स्वीकार करते हैं, शास्त्रों से, समाज से, परंपराओं से, वह ज्ञान मुक्ति तो दूर, वह ज्ञान ही मुक्ति के मार्ग में सब से बड़ी बाधा है।
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इसलिए मैंने कहा कि इसके पहले कि यह ज्ञान मिल सके जो मुक्त करता है, उस ज्ञान को छोड़ देना होगा जो कि परतंत्र करता है। असल में उस ज्ञान को ज्ञान कहना ही उचित नहीं है जो हम दूसरों से उधार इकट्ठा कर लेते हैं। लेकिन हमारा सारा ज्ञान ऐसा ही है।
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कोई आदमी कुआं खोदता है तो कुआं खोदने में मिट्टी और पत्थर निकाल कर बाहर कर देने होते हैं। मिट्टी और पत्थर निकालता जाता है, खोदता जाता है, थोड़ी देर नीचे जलस्रोत उपलब्ध हो जाते हैं। जल तो नीचे मौजूद था, उसे कहीं से लाना नहीं पड़ा। लेकिन मिट्टी पत्थर से बीच में उन्हें अलग कर देना पड़ा।
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लेकिन दूसरा आदमी हौज बनाता है। वह मिट्टी-पत्थर खरीद के लाता है, उनकी दीवाल बनाता है और कहीं से पानी लाकर उसमें भर देता है। कुएं में भी पानी होता है, हौज में भी पानी होता है, लेकिन दोनों के पानी में जमीन-आसमान का भेद है।
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कुएं में से मिट्टी और पत्थर निकाल कर बाहर करना होता है। हौज में मिट्टी और पत्थर खरीद कर दीवाल बनानी पड़ती है। कुएं में से पानी अपने आप निकलता है, हौज में पानी कहीं से लाकर भरना पड़ता है। कुएं का पानी जीवित होता है। हौज का पानी बहुत जल्दी सड़ जाता है। हौज के पानी में कोई स्त्रोत नहीं होते ।
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कुएं के पानी का प्राण समुद्रों से जुड़ा होता है नीचे, अंतरधाराओं से जुड़ा होता है। हौज कहीं से भी जुड़ी नहीं होती। हौज एकदम उधार है। उसके पास अपनी कोई आत्मा नहीं है।। कुआं जीवित है, उसके पास अपने प्राण हैं, अपने जीवित स्त्रोत हैं।
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हौज और कुएं में जो फर्क है, वही ज्ञानी और पंडित में फर्क है। ज्ञान वह है, जो कुएं की भांति चित्त से सारे ईंट-पत्थर अलग कर देने से उत्पन्न होता है, भीतर से जन्मता है। लेकिन पंडित का ज्ञान उधार है, बाहर से लाया हुआ है शास्त्रों से, शब्दों से, सिद्धांतों से उसने अपने ज्ञान को बनाया है। ये दोनों स्थितियां एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत और भिन्न और विरोधी हैं। कुएं जैसा जो ज्ञान है, वह मुक्त करता है, हौज जैसा जो ज्ञान है वह परतंत्र करता है। वह मुक्त नहीं करता है।
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पंडितों ने कभी सत्य जाना हो, ऐसा संभव नहीं है। उसका जानना ही बाधा बन जाता है। यह भी मनुष्यता की अस्मिता और अहंकार है कि मैं जानूंगा। हमारे भीतर ज्ञान की शक्ति सोई हुई है, लेकिन चुनौती नहीं देते हम उन्हें। बल्कि हम सारी चुनौती को मार डालते हैं। दूसरों का ज्ञान पकड़ लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं। चुनौती नष्ट हो जाती है, चैलेंज नष्ट हो जाता है।
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जो आदमी किसी के भी ज्ञान को कभी स्वीकार नहीं करता और हमेशा इस कोशिश में रहता है कि मैं किसी और के ज्ञान से तृप्त न होऊं उसके भीतर उसके भीतर एक खाली जगह पैदा हो जाती है, एक रिक्तता पैदा हो जाती है और उसके भीतर अज्ञान का बोध गहरा होने लगता है। वह उस रिक्तता में, उस अज्ञान की पीड़ा में ही, उस चुनौती में ही भीतर सोई हुई शक्तियां जागती हैं और कोई भी रास्ता भीतर की सोई हुई शक्तिओं के जागने का नहीं है।
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लेकिन जो लोग अपने को किसी ज्ञान से भर लेते हैं उनकी सोई हुई शक्तियां सोई हुई रह जाती हैं। इसलिए मैंने कहा, ज्ञान से सावधान। किस ज्ञान की मैं बात कर रहा हूं ? उस ज्ञान की, जो बाहर से आता है। और किसलिए कह रहा हूं, उस ज्ञान से सावधान ? ताकि वह ज्ञान आ सके, जो कहीं से भी नहीं आता है भीतर से जन्मता है और विकसित होता है।
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जो लोग कागज के फूल लाकर घर सजा लेते हैं, उन्हें यह खयाल भी भूल जाता है कि ऐसे फूल भी पैदा किए जा सकते हैं जो कागज के नहीं होते। और जो लोग कागज के फूलों पर विश्वास करने पर धीरे-धीरे निर्भर हो जाते हैं, असली फूलों को पैदा करने का उनका खयाल ही मिट जाता है।
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जो ज्ञान दूसरों से आता है वह कागज के फूलों की भांति है। वे बाजार में सस्ते मिल जाते हैं। उनके लिए कोई श्रम नहीं करना पड़ता। उन्हें पैदा करने के लिए कोई मेहनत, कोई साधना नहीं करनी पड़ती है। उन्हें सम्हालने की बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती है। वे फूल मुर्दा होने की वजह से कभी मुर्झाते भी नहीं है। कागज के फूल घरों में जैसे सजाने की आदत है…और वह आदत दुनिया में बढ़ती चली जा रही है।
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कागज की जगह और प्लास्टिक के फूल बन रहे हैं, और अच्छे फूल बनेंगे। यह भी हो सकता है, आदमी ऐसे फूल बना ले जो परमात्मा के फूलों के मुकाबले भी ज्यादा सुगंध देने लगें, ज्यादा सुंदर दिखाई पड़ने लगें, ज्यादा टिकाऊ हों, एक दफे खरीद लें और जिंदगी भर काम दे जाएं। आदमी ऐसे फूल बना लेगा। इसमें क्या कठिनाई है ? लेकिन फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि वे फूल मुर्दा होंगे, वे फूल जिंदा नहीं होंगे।
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ठीक जैसे हम कागज के फूल बनाते हैं, वैसे ही हमने कागज का ज्ञान इकट्ठा कर लिया है। किताबों से, कागजों से किया गया इकट्ठा ज्ञान कागजी फूलों से ज्यादा नहीं है। वह ज्ञान सस्ता भी मिल जाता है, आसानी से मिल जाता है और मजे से हम ज्ञानी हो जाते हैं। बिना ज्ञानी हुए ज्ञानी होने का आनंद आ जाता है। अहंकार तृप्त हो जाता है और यात्रा रुक जाती है।
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इसलिए मैंने कहा, ज्ञान से सावधान ! ज्ञान से छूटना होगा ताकि सच में ज्ञान पैदा हो सके। ज्ञान मुक्ति है, लेकिन वह ज्ञान नहीं, जो हम दूसरों से पा लेते हैं। वह ज्ञान, जो भीतर से आता है, मुक्त करता है। लेकिन उसकी यात्रा में यह साहस करना होगा, इसे छोड़ने का साहस करना होगा इसलिए मैंने कहा।
ओशो

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