सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

*सकाम दरसन तृस्कार कौ अंग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*करामात कलंक है, जाकै हिरदै एक ।*
*अति आनन्द व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक ॥*
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*सकाम दरसन तृस्कार कौ अंग ॥*
*ढूंढा बालण बन दहन, यहु तौ आगि अनंत ।*
*इहिं कौ रांध्यौ ना छुवै, कुलवंती कौ कंत ॥७॥*
ढूंढा = मकान को जलाने वाली तथा बन को भस्म कर देने वाली अग्नि प्रचंड होती हैं किन्तु इस अग्नि पर कोई भी कुलीन स्त्री भोजन नहीं पकाती । कदाचित् कोई पकाती भी है तो कुलीन पति उसको खाता नहीं है । इसी प्रकार सकाम उपासना से परमात्म-प्राप्ति दुष्कर ही नहीं असंभव भी है । अतः सकाम भाव को छोड़कर निष्काम-भावसे उपासना करनी चाहिये ॥७॥
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*निहकाम अनमोदना कौ अंग ॥*
*जिहिं अग्नि न धूँवौ नीसरै, तवौ न कालौ होइ ।*
*कुलवंती बषनां कहै, तारै सैतौ धोइ ॥८॥*
जिस अग्नि के जलने में न धुवाँ निकलता है और न उस पर तवा रखने से तवा ही काला होता है । कुलीन स्त्री को चाहिये कि वह ऐसी ही अग्नि को अंगीकृत करे । यहाँ निर्धूम अग्नि से तात्त्पर्य वासना = कामनाहीन साधना पद्धति से है । मन में विकारों का न उपजना ही तवे का काला न होना है । निष्काम साधक ही कुलवंती स्त्री है । अनमोदना = अनुमोदन, समर्थन ॥८॥
इति भेष कौ अंग ॥अंग ७२॥साषी १३०॥
(क्रमशः)

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