मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

बषनां तेल न निकलै

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू राम संभाल ले, जब लग सुखी सरीर ।*
*फिरि पीछै पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर ॥* 
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*समैं चूक पछितावा कौ अंग ॥* 
पहली काँइ न पीड़िया, किहि अरथि न आया ।
बषनां तेल न निकलै, तिल ईली खाया ॥१॥
ईलियों द्वारा खाये हुए तिलों से तैल नहीं निकलता । उन्हें पहले ही क्यों नहीं पेर डाला । अब ईलियों द्वारा खाये जाने के कारण वे न तैल निकालने में काम आने लायक हैं और न बीज के रूप में ही काम आने लायक हैं ? ऐसे ही जब तक शरीर में शक्ति थी, इन्द्रियाँ स्वस्थ थीं तबतक ही क्यों नहीं भजन-पूजन कर लिया । जब शरीर रोगी तथा इन्द्रियाँ शिथिल हो चुकी हैं तब इनसे भजन ध्यान होना संभव नहीं ॥१॥ 
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*सतगुर जहाज कौ अंग ॥*
काल झाल थैं हुवा निराला, कलि कालिमा न लागी ।
बषनां कह मैं तिरता देख्या, गुर दादू सँग बैरागी ॥२॥  
बषनांजी कहते हैं, मैंने मेरी आँखों से गुरुमहाराज दादूजी की संगति में ऐसे वैरागी को देखा है जो काल की ज्वाला से बच गया, कलियुग की काली कालिमा जिसे छू तक नहीं सकी, और उसको तिरते हुए = ब्रहमनिष्ठ होते हुए = जीवन्मुक्त होते हुए देखा है । 
दादूजी महाराज के एक शिष्य/सत्संगी टौंक में माधवकाणीजी वैरागी संत हुए हैं । वे यद्यपि वैरागी संप्रदाय के संत थे तथापि उनकी दादूजी महाराज में अगाध श्रद्धा थी । उन्होंने दादूजी को अपने यहाँ सत्संगार्थ आमंत्रित भी किया था । इन्हें दादूजी की कृपा से ही स्वात्मसाक्षात्कार हुआ था । यहाँ वैरागी से तात्पर्य श्रीमाधवकाणीजी से ही है ॥२॥ 
(क्रमशः)

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