रविवार, 4 फ़रवरी 2024

'यदृच्छालाभ'

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*दादू कौवा बोहित बैस कर, मंझि समंदाँ जाइ ।*
*उड़ि उड़ि थाका देख तब, निश्‍चल बैठा आइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १२७~ज्ञान-विज्ञान विचार*
*(१)श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र*
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नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान में बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा - २७ अक्टूबर १८८५, मंगलवार, आश्विन कृष्ण चतुर्थी । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र तथा मणि आदि से बातचीत कर रहे हैं ।
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नरेन्द्र - डाक्टर कल कैसी कैसी बातें कर गया !
एक भक्त - मछली काँटे में पड़ गयी थी, पर डोर तोड़कर निकल गयी ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं, तोड़ते समय काँटा उसके मुँह में रह गया । इसलिए वह लापता नहीं हो सकती; देखो मरकर, अभी उतरायेगी ।
नरेन्द्र जरा बाहर गये, फिर आयेंगे । श्रीरामकृष्ण मणि के साथ पूर्ण के सम्बन्ध में बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - भक्त स्वयं को प्रकृति तथा भगवान को पुरुष मानकर उसे गले लगाने तथा चुम्बन करने की इच्छा करता है । पर यह तुम्हीं से कह रहा हूँ, सामान्य जीवों के सुनने की यह बात नहीं ।
मणि - ईश्वर अनेक तरह से लीलाएँ करते हैं - आपका रोग भी लीला ही है । इस रोग के होने के कारण यहाँ नये नये भक्त आ रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - भूपति कहता है, 'अगर आपको रोग न होता और किराये से मकान लेकर सिर्फ यहाँ रहते होते तो लोग क्या कहते ?' - अच्छा, डाक्टर की क्या से खबर है ?
मणि- इधर दास्य-भाव मानता भी है - 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ', उधर यह भी कहता है कि आदमी के लिए ईश्वर की उपमा क्यों ले आते हो ?
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श्रीरामकृष्ण - खैर, क्या आज भी तुम उसके पास जा सकोगे ?
मणि - खबर देने की अगर आवश्कयता होगी तो जाऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - भला बंकिम कैसा लड़का है ? यहाँ अगर वह न आ सके तो तुम्हीं उसे कुछ बता देना । उससे उसका आध्यात्मिक ज्ञान जागृत होगा ।
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नरेन्द्र पास आकर बैठे । नरेन्द्र के पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण नरेन्द्र बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं । माँ और छोटे भाई हैं, उनके भरण-पोषण की चिन्ता रहती है । नरेन्द्र कानून की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे हैं ।
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इधर कुछ दिन विद्यासागर के बहूबाजारवाले स्कूल में अध्यापक रह चुके हैं । घर का कोई प्रबन्ध करके निश्चिन्त होने की चेष्टा में लगे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण को सब कुछ मालूम है । वे नरेन्द्र की ओर स्नेह की दृष्टि से देख रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - अच्छा, केशव सेन से मैंने कहा, 'यदृच्छालाभ' (जो कुछ मिल जाय) । जो बड़े घराने का लड़का है, उसे भोजन की चिन्ता नहीं रहती - वह हर महीना जेब-खर्च पाता ही रहता है; परन्तु नरेन्द्र इतने ऊँचे घराने का है, उसके लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं हो जाती ? ईश्वर को मन दे देने पर वे सब व्यवस्था कर देते हैं ।
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मास्टर - जी हाँ, कर देंगे । अभी सब समय बीता भी तो नहीं ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु तीव्र वैराग्य होने पर यह सब हिसाब नहीं रहता । ‘घर का कुल प्रबन्ध करके तब साधना करूँगा’ - तीव्र वैराग्य के होने पर इस तरह की बात पर ध्यान नहीं जाता । (सहास्य) गोसाईं ने लेक्चर दिया था । उसने कहा, ‘दस हजार रुपये हों तो इतने से भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध आनन्द से हो सकता है और तब निश्चिन्त होकर ईश्वर का चिन्तन किया जा सकता है ।’
(क्रमशः)

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