शुक्रवार, 1 मार्च 2024

*श्री रज्जबवाणी सवैया ~ १२*

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*कोमल कुसम दल,*
*निराकार ज्योति जल, वार न पार ।*
*शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ,*
*विलसि-विलसि निज सार ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ४३७)
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
नाम को ठांव१ रु नीति को आगर२,
ज्ञान की गंग बहै मुख मागै३ ।
साँच की सींव४ सु दृढ सुमेरु सो,
शील की साल५ मंडी६ सब आगै ॥
समाई समुद्र सुगंधि को चंदन,
पारस रूप सु मन करम लागै ।
हो७ रज्जब राम दियो दत्त८ दादु को,
अंग९ अनन्त बड़े बड़ भागै ॥१२॥
नाम के घर१ हैं और नीति की खानि२ है, मुख-मार्ग३ से ज्ञान गंगा का प्रवाह बहता रहता है ।
सत्य की सीमा४ है और सुमेरु पर्वत के समान सुदृढ हैं, शील रूप दुशाला५ ओढ़ते हैं और जिनका ब्रह्म निष्ठा रूप मंडप६ सब से आगे है,
समुद्र के समान समाई है, अर्थात गंभीर है । भक्ति रूप सुगंधि के तो चन्दन ही हैं । हमें तो मन कर्म से पारस रूप ही लगते हैं ।
हे७ सज्जनों ! दादूजी को राम जी ने ही, यह महान दान८ दिया है, उनमें अनन्त शुभ लक्षण९ हैं, वे बड़े ही बड़भागी हैं ।
(क्रमशः)

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