शुक्रवार, 1 मार्च 2024

बषनां देखि चँदन ढिंग रहताँ

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*रूख वृक्ष वनराइ सब, चंदन पासैं होइ ।*
*दादू बास लगाइ कर, किये सुगन्धे सोइ ॥*
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*संत गुरु कृपा गुण कौ अंग ॥*
रूँखराइ जेती सँग रहती, तेती कौं गुण दीया ।
बषनां देषि बावनैं चंदनि, सब बन चंदन कीया ॥३॥
बषनांजी कहते हैं, देखिये एक मल्यागिरी चंदन का वृक्ष अपने सन्निकट रहने वाले जंगल के अन्यान्य समस्त वृक्षों को अपना गुण देकर सदृश बना देता है । इसी प्रकार संत, गुरु, सुयोग्य शिष्य को अपने गुण = राम-भजन, स्वात्मतत्त्वचिंतन का उपदेश देकर अपने सदृश = ब्रहमनिष्ठ कर लेते हैं ॥३॥
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नीचा कुल ऊँचा मता, ज्याँह की संगति जीया ।
बषनां देखि चँदन ढिंग रहताँ, आप सरिखा कीया ॥४॥
बषनांजी कहते हैं, देखिये चंदन का वृक्ष स्वयं के निकट रहने वाले अन्यान्य जाति के अनेकों वृक्षों को अपने सदृश कर देता है । ऐसे ही वे संत भी अपनी संगति में रहने वाले सत्संगियों को आत्मनिष्ठ बना देते हैं जो यद्यपि उत्पन्न तो निम्नकुल में होते हैं किन्तु उनकी साधना उच्चतम स्तर की होती है ॥४॥
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जिहिं कुलि चंदन ऊपनौं, आनंदी बनराइ ।
संगति का महंगा किया, बषनां बास लगाइ ॥५॥
जिस कुल = जंगल में चंदन उत्पन्न हो जाता है, वह पूरा ही जंगल आनंदी = आल्हादित = सुगंधित हो जाता है । क्योंकि चंदन अपनी सुगंध उनमें प्रविष्ट कराकर उन्हें भी मूल्यवान बना देता है । उसके निकट के सभी वृक्ष चंदन बनकर अपेक्षाकृत अधिक मूल्यवान हो जाता हैं ॥५॥
इति सुसंगति कौ अंग सम्पूर्ण ॥अंग ८२॥साषी १४७॥
(क्रमशः)

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