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*दादू सेवग सेवा कर डरै, हम थैं कछु न होइ ।*
*तूँ है तैसी बन्दगी, कर नहिं जाणै कोइ ॥*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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मनहर -
बीनती विकट१ बात कैसे करूं गुरुतात२,
सु कछुन मुख जीव जाहि के बुलाइये ।
तैसी नांहिं भाव सेव जाहि रीझे गुरुदेव,
प्रीति पानि३ कौन आनि४ ठौरते हिलाइये ॥
सर्व अंग५ हीन दीन चाकरी कदे न कीन्ही,
कौन भांति मान६ तान७ जोर के चलाइये ।
कहत कह्यो न जाय रज्जब रह्यो न जाय,
दादूजी दयालु होय पयानो८ दिलाइये ॥१६॥
गुरुदेव ! आपसे विनय करना तो बड़ी१ बात है, मैं आपका शिष्य२ किस प्रकार विनय करूं ? मेरे मुख की जिह्वा से कुछ सुन्दर वचन भी तो नहीं निकलते, जिनके द्वारा विनय करके आपको बुलाया जाय ।
जिससे गुरुदेव प्रसन्न हों वैसे ही भावपूर्वक सेवा भी तो मेरी नहीं है । कौन प्रीतिरूप हाथ३ से बुलाकर४ उनको अपने स्थान से हिला सकता है ?
अर्थात ऐसी प्रीति किस में है ? सर्व शुभ लक्षण५ से हीन मुझ ने कभी भी सेवा नहीं करी है, तब कौन भांति सेवा का अभिमान६ करके जोर से संभाषण७ से उन्हें अपनी और चलाया जाय ?
कहता हूं किंतु उचित रूप से कहा नहीं जाता और बिना कहे रहा नहीं जाता । हे दादूजी ! आप ही दयालु होकर निज स्थान से गमन८ करके मेरे यहां आने का वर दीजिये ।
(क्रमशः)
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