शनिवार, 23 मार्च 2024

*साजोजि मुक्ति कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*जहाँ राम तहँ मन गया, मन तहँ नैना जाइ ।*
*जहँ नैना तहँ आतमा, दादू सहजि समाइ ॥*
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*साजोजि मुक्ति कौ अंग ॥*
जंबुक क्या खाइ अग्नि क्या जालै, माटी गडै सु कौंण ।
दादू मिले दयाल कौं, ज्यूं पाणी मै लूँण ॥४॥
बषनांजी ने उन लोगों से प्रतिप्रश्न किया है जिन्होंने दादूजी की देह के पवनदाग के सम्बन्ध में प्रश्न किये थे ।
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बषनांजी पूछते हैं, बताइये ! जंबुकों के द्वारा खाया जाता है, वह क्या है ? इसी प्रकार अग्नि में जिसको जलाया जाता है, वह क्या है ? बताइये । मिट्टी में जिसको गाड़ा जाता है, वह क्या होता है ? वस्तुतः खाने, जलने और गड़ने वाला शरीर होता है, आत्मा नहीं ।
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दादूजी आत्मस्वरूप थे और अपने समष्टि आत्मस्वरूप में ठीक वैसे ही मिल गये जैसे पानी में नमक मिलता है ॥४॥ दाग चार प्रकार के माने गये हैं (१) अग्निदाग (२) जलदाग (३) भूमिदाग (४) पवनदाग ।
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गृहस्थलोग देशाचारानुसार अग्निदाग अथवा जलदाग करते हैं । मुसलमान भूमिदाग करते हैं । संन्यासी जलदाग करते हैं । प्रारम्भिक दिनों में दादूपंथ में पवनदाग का प्रचलन था किन्तु वर्तमान में अग्निदाग ही बहुलता से होता है ।
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दूध मिल्यौ ज्यूँ नीर मैं, जल मिश्री इक रूप ।
सेवग स्वामी नाँव द्वै, बषनां एक सरूप ॥५॥१
(*१ यह साषी मंगलदासजी स्वामी की पुस्तक तथा वि. स. १७८० में लिखित प्रति दोनों में ही नहीं है ।)
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जिस प्रकार दूध और जल मिल कर एक हो जाते हैं, मिश्री और जल मिलकर एक हो जाते हैं, ऐसे ही सेवक और स्वामी, भक्त और भगवान, ज्ञानी और परब्रह्म-परमात्मा कहने के लिये दो हैं किन्तु स्वरूपतः वे दो नहीं, एक ही होते हैं ॥५॥ “ब्रह्म विद्ब्रह्मैव भवति ॥” “तस्मिन् तज्जना भेदाभावात् ॥”
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श्रीदादू बचन प्रमाण ॥
दादू जब दिल मिली दयाल सूँ, तब अंतर कुछ नाहिं ।
ज्यूँ पाला पाणी कूँ मिल्या, त्यूँ हरिजन हरि माहिं ॥४/३०४॥
दादूजी महाराज कहते हैं, जब आत्मा निजस्वरूपभूत परमात्मा में मिल जाती है तब उन दोनों में कोई भी किसी भी प्रकार का अंतर नहीं रहता । जैसे पाला(ओसकण) पानी में मिलकर पानी रूप हो जाता है, ऐसे ही हरि और हरिजन एक ही हैं ॥४/३०४॥
इति निरपख कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ८७॥साषी १५७॥
(क्रमशः)

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