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*विरह बापुरा आइ कर, सोवत जगावे जीव ।*
*दादू अंग लगाइ कर, ले पहुँचावे पीव ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १२९~योग तथा पाण्डित्य*
*(१)श्यामपुकुर में भक्तों के संग में*
आज शुक्रवार है, आश्विन की सप्तमी, ३० अक्टूबर १८८५ । श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के लिए श्यामपुकुर आये हुए हैं । दुमँजले के एक कमरे में बैठे हुए हैं, दिन के नौ बजे का समय होगा, मास्टर से एकान्त में बातचीत कर रहे हैं । मास्टर डाक्टर सरकार के यहाँ जाकर पीड़ा की खबर देंगे और उन्हें साथ ले आयेंगे । श्रीरामकृष्ण का शरीर इतना अस्वस्थ तो है, परन्तु इतने पर भी वे दिन-रात भक्तों की मंगल कामना और उनके लिए चिन्ता किया करते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से, सहास्य) - आज सबेरे पूर्ण आया था । बहुत अच्छा स्वभाव हो गया है । मणीन्द्र का प्रकृति-भाव है । कितने आश्चर्य की बात है ! चैतन्य-चरित पढ़कर उसके मन में गोपीभाव, सखीभाव की धारणा हो गयी है - यह भाव कि 'ईश्वर पुरुष हैं और मैं मानो प्रकृति ।'
मास्टर - जी हाँ ।
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पूर्णचन्द्र स्कूल में पढ़ता है, उम्र १५-१६ साल की होगी । पूर्ण को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण बहुत व्याकुल होते हैं । परन्तु घरवाले उसे आने नहीं देते । पहले-पहल एक रात को पूर्ण को देखने के लिए वे इतने व्याकुल हुए थे कि उसी समय वे दक्षिणेश्वर से एकाएक मास्टर के घर चले गये थे । मास्टर ने पूर्ण को घर से ले आकर साक्षात् करा दिया था । ईश्वर को किस तरह पुकारना चाहिए आदि बातें उसके साथ करने के पश्चात् वे दक्षिणेश्वर लौटे थे ।
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मणीन्द्र की उम्र भी १५-१६ साल की होगी, भक्तगण उसे 'खोखा' कहकर पुकारते थे । वह बालक ईश्वर के नाम-संकीर्तन को सुनकर भावावेश में नाचने लगता था ।
(क्रमशः)
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