रविवार, 10 मार्च 2024

*श्री रज्जबवाणी सवैया ~ १४*

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*दादू मेरा एक मुख, कीर्ति अनन्त अपार ।*
*गुण केते परिमित नहीं, रहे विचार विचार ॥*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
दादू गुरु के गुणों नहिं अंत जु,
कौन समान सु अंग१ बखानौं ।
उरैं२ उनचास सु अवनि अंकूर,
नक्षत्र न आगे नहीं नभ जानौं ॥
बूँद न छेह सु वर्ष विरासत३,
नीर हि तीर समुद्र समानौं,
हो रज्जब आभ४ हू और ॠतु गत,
पवन को पार बहत विलानौं ॥१४॥
गुरुदेव दादू जी के गुणों का अंत नहीं है, उनका शरीर१ किसके समान कहैं ? उनचास कोटि पृथ्वी के अंकुर भी इधर२ ही रह जाते हैं, उन से भी दादूजी के गुण अधिक हैं । निश्चय जानो आकाश में स्थित नक्षत्रों से भी दादूजी के गुण आगे हैं अर्थात अधिक हैं ।
बादल बर्ष करके पृथ्वी पर डाल३ देते हैं, तब विन्दुओं का भी अंत आ जाता है । जल भी समुद्र तट पर आकर समुद्र में समा जाता है ।
बादलों४ का अंत वर्षा ॠतु जाने पर आ जाता है वायु का भी जब वह चलकर विलिन हो जाती है तब अंत आ जाता है किंतु हे सज्जनों ! दादूजी के गुणों का अंत नहीं है ।
(क्रमशः)

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