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*दादू पावै सुरति सौं, बाणी बाजै ताल ।*
*यहु मन नाचै प्रेम सौं, आगै दीन दयाल ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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चैतन्य महाप्रभु आइंस्टीन जैसी बुद्धि के आदमी थे। बंगाल में कोई मुकाबला न था उनकी प्रतिभा का। उनके तर्क के सामने कोई टिकता न था। उनसे जूझने की हिम्मत किसी की न थी। उनके शिक्षक भी उनसे भयभीत होते थे। दूर—दूर तक खबर पहुंच गई थी कि उनकी बुद्धि का कोई मुकाबला नहीं है।
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और फिर जब यह चैतन्य इस बुद्धि को छोड़कर और झांझ—मजीरा लेकर रास्तों पर नाचने लगा, तो फिर चैतन्य महाप्रभु का मुकाबला भी नहीं है—इस नृत्य, और इस गीत, और इस प्रार्थना, और इस भाव, और इस भक्ति का। न होने का कारण है। नाचे बहुत लोग हैं। गीत बहुत लोगों ने गाए हैं। प्रार्थना बहुत लोगों ने की है। भाव बहुत लोगों ने किया है, लेकिन चैतन्य की सीमा को छूना मुश्किल है।
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क्योंकि चैतन्य का एक और अनुभव भी है, वे बुद्धि के आखिरी शिखर से उतरकर लौटे हैं। उन्होंने ऊंचाइयां देखी हैं। उनकी नीचाइयों में भी ऊंचाइया छिपी रहेंगी, तो इस युग के लिए यह ध्यान में रख लेना जरूरी है कि यह युग एक शिखर अनुभव के करीब पहुंच रहा है, जहां बुद्धि व्यर्थ हो जाएगी। और जब बुद्धि व्यर्थ होती है, तो जीवन के लिए एक ही आयाम खुला रह जाता है, वह है भाव का, वह है हृदय का, वह है प्रेम का, वह है भक्ति का।
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आदमी अब पुराने अर्थों में भावपूर्ण नहीं हो सकता। अब तो नए अर्थों में भावपूर्ण होगा। पुराना आदमी सरलता से भावपूर्ण था। उसकी भावना में सरलता थी, गहराई नहीं थी। नया आदमी जब भावपूर्ण होता है, आज का आदमी जब भावपूर्ण होता है, तो उसके भाव में सरलता नहीं होती, गहराई होती है। और गहराई बड़ी कीमत की चीज है।
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इसे हम ऐसा समझें, एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा सरल होता है, लेकिन गहरा नहीं होता। गहरा हो नहीं सकता। क्योंकि गहराई तो आती है अनुभव से। गहराई तो आती है हजार दरवाजों पर भटकने से। गहराई तो आती है हजारों भूल करने से। गहराई तो आती है प्रौढ़ता से, अनुभव से। सार जब बच जाता है सब अनुभव का, तो गहराई आती है।
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एक का आदमी सरल नहीं हो सकता, लेकिन गहरा हो सकता है। एक बच्चा गहरा नहीं हो सकता, सरल हो सकता है। और जब कोई का आदमी अपनी गहराई के साथ सरल हो जाता है, तो संत का जन्म होता है।
ओशो
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