*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*आदि अन्त गाहन किया, माया ब्रह्म विचार ।*
*जहँ का तहँ ले दे धर्या, दादू देत न बार ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
मैंने सुना है, एक आदमी मजिस्ट्रेट था। वह अपनी अदालत में कोई कुर्सी नहीं रखता था, अकेले ही बैठता था। जब कोई आता था तो उसकी हैसियत से कुर्सी उसके पास कई थीं, कई नंबर की थीं, एक से लेकर सात नंबर की थीं, एक से लेकर सात नंबर तक की। वह पीछे के कमरे में रखी होती थीं। चपरासी से वह कहता, नंबर एक ले आओ तो चपरासी नंबर एक ले आता।
.
नंबर एक छोटा सा स्टूल था। देख लेता आदमी की हैसियत कैसी है। अगर हैसियत बिल्कुल ही न होती तो कुर्सी की कोई जरूरत न पड़ती, बिना नंबर के ही काम चलाना पड़ता था। जरा हैसियत होती, कुछ खाता-पीता, मध्यवर्गीय आदमी होता तो वह कहता, नंबर एक ले आओ। कुछ और जरा कपड़े-लत्तों पर कलफ होता, सफेदी होती, वह कहता, नंबर दो ले आओ। कुछ और जरा आंखों में रौनक होती, रीढ़ जरा होती, जूते पर जरा पॉलिश होती, वह कहता नंबर तीन ले आओ। ऐसा नंबर चलता था। आदमी के चलने और घुसने से पहचान जाता था कि किस नंबर की कुर्सी वाला आदमी है।
.
एक दिन ऐसा हुआ, एक बिल्कुल ही दरिद्र, एक बूढ़ा सा लकड़ी टेकता हुआ आदमी आया। चश्मा भी था तो रस्सी बंधी थी। वह अंदर घुसा, देखा कि बिन नंबर का आदमी है। थोड़ी देर ऐसे ही रहा। पूछाः कौन हो ? तो उसने कहाः मैं फलां-फलां गांव का रहने वाला हूं। मालगुजार हूं। वह एकदम चौंका कि भूल हो गई, ऊपर वाला आदमी है। उसने जल्दी से कहा कि नंबर एक ले आओ।
.
चपरासी भीतर से लेकर जब तक लौटता था, तब तक उस आदमी ने बूढ़ा आदमी था, धीरे-धीरे खांसता था, बोला कि रायबहादुर हूं, वह वहीं से चिल्लाया कि ठहर, नंबर दो लाना। फिर वह रखने गया, दो लेने गया। तब तब उसने बताया कि मैंने वार फंड में पच्चीस हजार रुपये दान दिए हैं, उसने कहा कि नंबर तीन ला। वह बूढ़ा बोलाः एक लाख और देने का विचार है।
.
उसने कहाः भाई ठहर..अभी बूढ़ा खड़ा ही है और नंबर की बदली होती जाती है तो नंबर चार ला। उस बूढ़े ने कहाः क्यों फिजूल परेशान कर रहे हैं ? आप आखिरी नंबर बुलावा लें, क्योंकि लाख देने का विचार है, लेकिन मेरा बच्चा-बच्चा कोई भी नहीं, बड़ी जायदाद है, आखिर क्या करूंगा ? सोचता हूं, सरकार को ही दे दूं। उसने कहाः आखिरी नंबर बुलवा लें, व्यर्थ क्यों परेशान कर रहे हैं ? मैं बूढ़ा आदमी हूं, मैं कब तक खड़ा रहूं ?
.
यह हमारा पागलपन है या बुद्धि ? ऐसे हम कैटेग्रीज बनाए हुए हैं, वर्ग बनाए हुए हैं। यह हमारा अहंकार है, जिसने यह सब पैदा किया परमात्मा के जगत में नंबर एक से नंबर सात तक की कोई कुर्सियां नहीं है।यही जो हमारा माइंड है, यह जो नंबर एक से नंबर सात तक सोचता है। यह इसी की कल्पना है, अगर ऐसा कोई मोक्ष और ऐसा कोई परमात्मा हो। नहीं, वहां सब समान हैं। वहां एक अदभुत समानता है। चाहे प्रकृति को देखें, वहीं दिखाई पड़ जाएगा।
.
वहां एक अदभुत समानता है। वहां एक अदभुत व्याप्ति है। वहां एक अदभुत सन्नाटा और एक अदभुत साम्य है। वहां कोई विभाजन नहीं है। लेकिन हम विभाजन करते हैं। विभाजन करने वाला मन है। जहां मन नहीं है, वहां विभाजन समाप्त हो जाते हैं। थोड़ा मन से दूर हट कर देखें तो आप पाएंगे, कोई विभाजन न दिखाई पड़ेगा। पत्थर में और पहाड़ में, पौधे में और पक्षी में वही एक सत्ता अभिव्यक्त होनी दिखाई पड़ेगी..वह एक ही। कोई भेद नहीं है वहां। भेद मनुष्यकृत है, अभेद परमात्मा का है, भेद प्रकृति का है।
ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें