सोमवार, 4 मार्च 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४०४

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४०४)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*४०४. अध्यात्म । एकताल*
*मन पवन ले उनमन रहै, अगम निगम मूल सो लहै ॥टेक॥*
*पँच वायु जे सहज समावै, शशिहर के घर आंणै सूर ।*
*शीतल सदा मिलै सुखदाई, अनहद शब्द बजावै तूर ॥१॥*
*बंकनालि सदा रस पीवै, तब यहु मनवा कहीं न जाइ ।*
*विकसै कमल प्रेम जब उपजै, ब्रह्म जीव की करै सहाइ ॥२॥*
*बैस गुफा में ज्योति विचारै, तब तेहिं सूझै त्रिभुवन राइ ।*
*अंतर आप मिलै अविनाशी, पद आनन्द काल नहिं खाइ ॥३॥*
*जामण मरण जाइ, भव भाजै, अवरण के घर वरण समाइ ।*
*दादू जाय मिलै जगजीवन, तब यहु आवागमन विलाइ ॥४॥*
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जब साधक अपने मन और प्राणों को रोक कर उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता हैं तब समाधि में वेदों से भी अगम्य जो ब्रह्म हैं उसको प्राप्त कर लेता हैं ।
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ब्रह्मविन्दुपनिषद् –
जिस समय विषयासक्ति रहित मन हृदय में ही निरुद्ध हो जाता है तथा उन्मनीभाव में स्थित रहता  है तब यह मन परमपद प्राप्ति का हेतु बन जाता हैं । जिस समय साधक के पंचप्राण सहजावस्था रूप समाधि में लीन हो जाते हैं तब जीव को सुख देने वाली शीतला दशा होती हैं । 
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यह दशा साधक की जब होती हैं कि इडा नाडीरूप चन्द्र वाम स्वर में पिंगला नाड़ीरूप सूर्य में मिल जाता हैं । अर्थात् दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और ये दोनों नाड़ियाँ सुषुम्ना में स्थिर हो जाती हैं । वहां पर जब प्राण सहजावस्थारूप समाधि में लीन हो जाते हैं । 
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उस समय वह दशा होती हैं कि जिसमें प्राणों के निरोध से जो स्पन्दन है उससे अनाहतनाद की मृदंग सदृश ध्वनि सुनाई पड़ती हैं । उस समय साधक सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ब्रह्मानन्द रस का पान करता हैं । उस समय मन उस स्थिति के आनन्द को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता । 
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लिखा है कि – जिस समय यह मन आनन्दरूप परमात्मा में निमग्न हो जाता हैं उस समय कल्पना करने वाले अपने स्वरूप को छोड़ देता हैं । विषयों में गमनागमन कष्ट को त्याग कर परे से परे परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैं इसलिये श्रुति मन के उन्मनीभाव को (अर्थात् परमात्मा में लगाने को) परम पद कहती हैं ।
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तब तक ही मन का निरोध करना चाहिये जब तक गरम तवे पर डाली हुई बूंद की तरह मनोवृत्ति हृदय में मिल न जाय । इस तरह मन का निरोध है वह ज्ञान का मोक्ष का साधन होने से ज्ञान और मोक्ष कहलाता हैं । इसी अभिप्रायः से श्रीदादूजी महाराज लिख रहे हैं कि “बंकनाली सदा रस पीवे तव यहु मनवा कहीं न जाय ।”
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ऐसे साधना करने वाले के हृदय में प्रभु प्रेम पैदा हो जाता हैं । उस प्रेम से उसका हृदय खिलता रहता हैं । तब परमात्मा भी उस साधक की सहायता करते हैं । उस समय साधक भ्रमरगुहा में स्थित होकर ध्यानस्थ हो जाता हैं और ज्योतिस्वरूप ब्रह्म को देखता हुआ जीव ब्रह्म की एकता का विचार करता हैं । और विचार करते-करते ज्ञान प्राप्त हो जाता हैं । 
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तब जीव अविनाशी ब्रह्म से अभिन्न होकर आनन्दस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता हैं । तब जीव न मरता है न जन्मता न कालग्रस्त होता और सांसारिक भावना भी उसकी निवृत्त हो जाती हैं । अरूप ब्रह्म में साकार जीव कर्तृत्व भोक्तृत्व रूप उपाधि को त्याग कर ब्रह्म में मिल जाता हैं । मिलने के बाद उसका संसार समाप्त हो जाता हैं और कूटस्थ स्वरूप हो जाता हैं ।
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ब्रह्मविन्दुपनिषद् में कहा है कि –
पहले अनहद स्वर में योगी योग का प्रारम्भ करें पीछे सभी शब्दों से रहित निर्गुण ब्रह्म में अपने मन की धारणा करे । अथवा पहले सगुण ब्रह्म से अभ्यास को प्रारम्भ कर पीछे निर्गुण निराकार ब्रह्म में मन को लगावें । निर्गुण निराकार कहने से ब्रह्म कोई अभावरूप नहीं हो गया । क्योंकि उसी की सत्ता से भाव अभाव सिद्ध होते हैं । तो भला ब्रह्म का अभाव कैसे हो सकता हैं । 
(क्रमशः) 

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