रविवार, 3 मार्च 2024

*४१. साच्छीभूत कौ अंग १७/२०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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जिन मंहि जैसा भाव है, तैसी भगति प्रकास ।
निज२ जन३ देखै नांम ले, सु कहि जगजीवनदास ॥१७॥
(२. निज=निराकार परमात्मा)    (३. जन=भक्त) 
संतजगजीवन जी कहते है कि जिसका जैसा भाव होता है वैसा ही भक्ति का प्राकट्य होता है । संत कहते हैं कि भक्त जन स्मरण द्वारा इसे प्रमाणित करते हैं ।
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बरकत बस्तु विवेक बिन, बाइ भूत बहि जाइ ।
कहि जगजीवन रांम भगति, रांमहि मांहि समाइ ॥१८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कोइ भी वस्तु विवेक व बरकत या वृद्धि के बिना वायु जैसे भूत या गत होजाती है । और राम भक्ति जीव को राम में ही मिला देती है ।
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रांम ह्रिदै धीरज धरम, ते कहिये धर्मेष्ट४ ।
कहि जगजीवन करम क्रित, ते कहिये कर्मेष्ट५ ॥१९॥
(४. धर्मेष्ट=धर्मोपासक)    (५. कर्मेष्ट=कर्म का उपासक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनके ह्रदय में राम हैं, धैर्य धारण करते हैं, धर्म में रहते हैं व जिनके इष्ट भी धार्मिक ही हैं, वे ही धार्मिक इष्ट वाले हैं । जिनके भाव कर्म में है वे जन कर्मेष्ट अर्थात कर्मोपासक कहलाते हैं ।
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चाहसि अन्दर सिकम बर, अल्लह आसिक नांम ।
कहि जगजीवन पाक दिल६, हरदम हेरै७ रांम ॥२०॥
(६. पाक दिल=पवित्र ह्रदय)     (७. हेरै=खोजे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे अन्दर जो कुछ दिया है वह प्रभु का दिया है हम उनके ऋणि हैं, उनके चाहनेवाले हैं । जो पवित्र मन है वह सदा सर्वदा प्रभु को ढूंढता है ।
(क्रमशः)  

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