सोमवार, 4 मार्च 2024

कुल खापण ऊँचौ बध्यौ

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*बिन ही पावक जल मुवा, जवासा जल मांहि ।*
*दादू सूखै सींचतां, तो जल को दूषण नांहि ॥*
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*दुरजन संग भै कौ अंग ॥*
बाँस बिड़ौ जे ऊपनौं, तो बषनां बिरछ डराइ ।
कुल खापण ऊँचौ बध्यौ, पणि दहसी सब बणराइ ॥१॥
जंगल में बाँस यदि उत्पन्न हो जाता है तो अन्य समस्त वृक्ष उससे डरने लगते हैं क्योंकि बाँस अन्य वृक्षों की वृद्धि को रोक देता है । बाँस के वृक्षों को नहीं काटे जाने पर ये इतने ऊंचे और सघन हो जाते हैं कि आपस में रगड़ खाकर कुल खापण = अपने सारे कुल = सजातीय बांसों को ही जला डालते हैं । इतना ही नहीं साथ में वन के अन्य समस्त वृक्षों को भी जलाकर भस्म कर देते हैं ॥१॥
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डरपै बूँटै बाँस कै, भार अठारह दूख ।
बषनां बलि करि बालसी, यह कुसंगड़ौ करूँख ॥२॥
अठारह भार वनस्पति (एक भार अढाई मण के बराबर होता है) । कहा जाता है, संसार में जितने भी प्रकार के पेड़ पौधे हैं उन एक-एक के एक-एक पत्ते को समवेत रूप में तराजू में रखकर तौला जाए तो उनका वजन २.१/२ गुणा १८ = ४५ मण = १८ भार के बराबर होता है) अपने पास बाँस का एक छोटा सा पौधा (बूँटै) उग आने पर भी अत्यन्त दुखित हो जाती है क्योंकि उन्हें अनुभव होता है कि यह अकेला करूंष = कुलोच्छेदक निकृष्ट वृक्ष पूरे जंगल को जलाता हुआ स्वयं भी जलकर नष्ट हो जायेगा ।
ऐसे ही कुसंगड़ौ = नीच आचरण वाला व्यक्ति स्वयं तो नीच कर्मरत रहकर स्वयं का लोक-परलोक बिगाड़ता ही है, दूसरों का भी जीवन बर्बाद कर देता है ॥२॥
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*दुरजन त्याग कौ अंग ॥*
कुल ऊँचा गुण नीचा जामैं, तिहिं की संगति टाली ।
बषनां देखी बाँस की करणी, रूँखराय सब जाली ॥३॥
जिसका कुल तो ऊँचा हो किन्तु गुण नीचे हों तो उसकी संगति को त्याग देना चाहिये । अन्यथा ऐसे लोगों की संगति करने से वैसे ही अवनति होती है जैसे बांस के वृक्ष के साथ सारा जंगल बेवजह जल कर भस्म हो जाता है ॥३॥
इति कुसंगति कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ८४॥साषी १५०॥
(क्रमशः)

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