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*जे जन बेधे प्रीति सौं, सो जन सदा सजीव ।*
*उलट समाने आप में, अन्तर नांही पीव ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सुबह आप उठते हैं ताजे, लेकिन कभी आपने खयाल किया, यह ताजगी कहां से आती है ? निश्चित ही, रातभर आपने ताजगी के लिए कुछ भी नहीं किया; न कोई व्यायाम किया, न कोई भोजन लिया। रातभर अगर आपने कुछ भी किया, तो इतना ही किया कि अपने को सब करने से रोका।
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रातभर आप सोए रहे। सोने में आप पुनः अव्यक्त में गिर जाते हैं। व्यक्त से हट जाते हैं, अव्यक्त में गिर जाते हैं। उसी अव्यक्त से ताजगी लेकर सुबह पुनः उठ आते हैं। सांझ होते-होते फिर थक जाते हैं; दिन ढल जाता है, रात शुरू हो जाती है। फिर…।
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इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं, निद्रा छोटी मृत्यु है, निद्रा आंशिक मृत्यु है; मृत्यु पूर्ण निद्रा है। रोज आदमी को मरना पड़ता है, इसीलिए सुबह वह पुनः जीवित हो पाता है। रात अंधेरे में डूब जाते हैं, सुबह फिर पुनरुज्जीवित होते हैं, ताजे, प्रफुल्लित; फिर काम में लग जाते हैं।
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ठीक ब्रह्मा की यह पूरी सृष्टि भी दिनभर में थक जाती है, सांझ होने के करीब हो जाती है। फिर मृत्यु, फिर पुनर्जन्म। ठीक चौबीस घंटे के दिन की भांति ब्रह्मा का भी बड़ा वर्तुलाकार दिन घूमता रहता है।
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आचार्य श्री रजनीशOsho
गीता दर्शनअ.8.प्र.7/95
सृष्टि और प्रलय का वर्तुल

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