शनिवार, 9 मार्च 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४०५


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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४०५)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*४०५. एकताल*
*जीवन मूरी मेरे आतम राम, भाग बड़े पायो निज ठाम ॥टेक॥*
*शब्द अनाहद उपजै जहाँ, सुषमन रंग लगावै तहाँ ।*
*तहँ रंग लागे निर्मल होइ, ये तत उपजे जानै सोइ ॥१॥*
*सरवर तहाँ हंसा रहे, कर स्नान सबै सुख लहै ।*
*सुखदाई को नैनहुँ जोइ, त्यों त्यों मन अति आनन्द होइ ॥२॥*
*सो हंसा शरणागति जाइ, सुन्दरि तहाँ पखाले पाइ ।*
*पीवै अमृत नीझर नीर, बैठे तहाँ जगत गुरु पीर ॥३॥*
*तहँ भाव प्रेम की पूजा होइ, जा पर किरपा जानै सोइ ।*
*कृपा करि हरि देइ उमंग, तहँ जन पायो निर्भय संग ॥४॥*
*तब हंसा मन आनंद होइ, वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।*
*जा को हरि लखावै आप, ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥५॥*
*तहँ अनहद बाजै अद्भुत खेल, दीपक जलै बाती बिन तेल ।*
*अखंड ज्योति तहँ भयो प्रकास, फाग बसंत ज्यों बारह मास ॥६॥*
*त्रय स्थान निरंतर निरधार, तहँ प्रभु बैठे समर्थ सार ।*
*नैनहुँ निरखूं तो सुख होइ, ताहि पुरुष को लखै न कोइ ॥७॥*
*ऐसा है हरि दीनदयाल, सेवक की जानैं प्रतिपाल ।*
*चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान ॥८॥*
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आत्मस्वरूप भगवान् श्रीराम ही मेरे जीवन की औषधि हैं । मैं बड़ा ही भाग्यशाली हूँ कि मुझे भगवान् के दर्शन हो गये, क्योंकि श्रुति ने उनके दर्शन दुर्लभ बतलाये हैं । जैसे-यह आत्मतत्त्व बहुतों को तो सुनने में लिये भी नहीं मिलता ।
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जिसको बहुत से लोग सुनकर भी नहीं समझ सकते, ऐसे इस गूढ आत्मतत्त्व का वर्णन करने वाला आचार्य दुर्लभ ही है । उसे प्राप्त करने वाला भी बड़ा कुशल (सफल जीवन) कोई के ही हैं और जिसे इस तत्त्व की उपलब्धि हो गई ऐसे ज्ञानी महापुरुष के द्वारा शिक्षा प्राप्त किया हुआ आत्म तत्त्वव का ज्ञान परम दुर्लभ है । अतः मैं भाग्यशाली हूँ ।
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जिस हृदय प्रदेश में अनाहतनाद उत्पन्न होता हैं वहीँ पर सुषुम्ना के द्वारा मैं उनसे प्रेम करता हूँ । क्योंकि प्रभु के साथ प्रेम करने से जीव निर्मल हो जाता हैं । प्रेम तत्त्व को तो प्रेमीभक्त ही जान सकता हैं । उसी हृदय सरोवर में मनरूपी हंस अपनी वृत्ति के द्वारा ब्रह्म चिन्तन रूप जल में निमग्नता रूप स्नान करके सुखी होता हैं ।
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जैसे-जैसे अपने ज्ञान नेत्रों से उस आत्मज्योति का दर्शन करता हैं वैसे-वैसे उसका आनन्द बढ़ता रहता हैं । जहां अष्टदलकमल में सर्वसिद्धियुक्त जगद्गुरु परमात्मा विराजते हैं । वहां परजीवरूप हंस यदि शरण में जाता हैं तो उस उस जीवहंस की बुद्धि सुन्दरी उस प्रभु के चरण कमलों को प्रेम जल से धोती हैं और अमृत के स्त्रोतरूप प्रभु के दर्शनजल को पीती हैं और वहाँ पर श्रद्धा से और प्रेम से ही पूजा होती हैं ।
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जिस साधक पर प्रभु की कृपा होती हैं वह साधक ही उस पूजा पद्धति को जान सकता हैं । प्रेम भी प्रभु कृपा से ही प्राप्त होता हैं । मुझे दास को भी उनकी कृपा से ही उनका संग प्राप्त हुआ है । जब जीवरुपी हंस वाणी मन से अगोचर ब्रह्मवस्तु को जानता हैं तब उस जीव हंस को बड़ा ही आनन्द प्राप्त होता हैं ।
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प्रभुकृपा से जिसे उसका साक्षात्कार हो गया उसको पुण्य पाप नहीं लगते । वहां पर अनाहतनाद की ध्वनिरूप अद्भुतरूप क्रीड़ा निरन्तर होती रहती हैं । तेल और बत्ति के बिना ही आत्मा ज्योति का दीपक जलता रहता हैं । वसन्त ऋतु की तरह वहां पर फाग का उत्सव होता रहता हैं । और बारहमास ही साधक आनन्द रस को पीता रहता हैं । जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में विश्व के सार सर्वसमर्थ प्रभु विराजते हैं ।
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जब मैं अपने ज्ञान नेत्रों से देखता हूँ तो बड़ा आनन्द मिलता हैं । उस प्रभु को बहिर्मुख वृत्ति वाल नहीं देख सकता हैं । वह दीनदयालु प्रभु अपने सेवक की परिस्थिति और इच्छा को जानकर उसकी इच्छा को पूर्ण करते हैं और उसकी रक्षा भी वे ही करते हैं । हे जीव हंस ! तूं प्रभु के चरण कमलों की शरण ग्रहण कर जिससे तेरा मानव जन्म सफल हो जाय ।
(क्रमशः)

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