शुक्रवार, 8 मार्च 2024

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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सूफी फकीर हुआ है, बायजीद। एक धनपति उसके पीछे पड़ा है। रोज उसके पैर दाबता है और कहता है, राज बता दो। टेल मी दि सीक्रेट। तुम्हारे जीवन का राज बता दो। बायजीद उससे कहता है, जो राज है, अगर वह बता दिया जाए, तो राज कैसे रहेगा ? सीक्रेट का मतलब ही यह है कि जिसे मैं तुझे बताऊंगा नहीं। जिसे मैंने कभी किसी को नहीं बताया। तभी तो वह राज है, अन्यथा फिर राज कैसे रहेगा ?
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लेकिन वह आदमी मानता ही नहीं। वर्ष बीतने को आ गया। वह है कि रोज पैर दबाए जाता है। वह कहता है बायजीद को कि बता दो राज। तो बायजीद ने एक दिन कहा कि तो ठीक है, आज बताए देता हूं, लेकिन एक शर्त रहेगी। क्या तुम मेरे राज को राज रखोगे ? किसी को बताओगे नहीं ? विल यू मेनटेन दि सीक्रेट ऐज सीक्रेट ? कसम खाओ कि क्या तुम राज को राज रखोगे और किसी को बताओगे नहीं।
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उस आदमी ने कहा, कसम परमात्मा की कि राज को राज रखूंगा और किसी को बताऊंगा नहीं। बायजीद ने कहा, शाबाश, अगर तू अपनी कसम रख सकता है, तो मैं भी अपनी कसम रखूंगा और राज को बताऊंगा नहीं। और अगर मैं ही तोड़ दूंगा, तो तेरा कैसे भरोसा करूं कि तू नहीं बताएगा !
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तो जो प्रकट हो जाए, वह अप्रकट नाम मात्र को था, जस्ट फार दि नेम्स सेक। बीज नाम मात्र को अप्रकट है। इतनी तो तैयारी दिखा रहा है प्रकट होने की। ऐसा आतुर है। नाम मात्र को अव्यक्त है। तो अभी जिस अव्यक्त की बात कही, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह अव्यक्त माना है। लेकिन नाम मात्र को, क्योंकि व्यक्त हो जाता है। माना कि अदृश्य है, लेकिन दृश्य हो जाता है।
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तो जिस अदृश्य में दृश्य छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं सकता। हमें दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस अव्यक्त के भी पार, बियांड दिस अनमैनिफेस्ट, वह ब्रह्म है।
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वह अव्यक्त से भी अति परे। बियांड दि बियांड, अव्यक्त से भी अति परे। उसके भी पार, पार के भी पार, अतिक्रमण का भी अतिक्रमण करता हुआ वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त है। जो सनातन अव्यक्त है, इटरनली अनमैनिफेस्ट। यह तो टेंपररी अनमैनिफेस्ट है, अस्थायी रूप से अव्यक्त है, फिर व्यक्त हो जाता है, फिर अव्यक्त हो जाता है।
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लेकिन एक ऐसा अव्यक्त भाव भी है, एक ऐसा अव्यक्त अस्तित्व भी है, एक ऐसा अव्यक्त होना भी है, जो कभी व्यक्त न हुआ है, न होगा, न हो सकता है। वह अव्यक्त के भी परे है। वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा, वही मोक्ष–या जो भी नाम हम देना चाहें, दें–वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है।
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क्यों ? क्योंकि उसका कभी कोई सृजन नहीं हुआ, वह नष्ट नहीं हो सकता। उसकी कभी सुबह नहीं हुई, उसकी सांझ नहीं हो सकती। उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, तो उसकी कभी प्रलय नहीं हो सकती है। अगर तू जानना ही चाहता है अमृत को और अगर तू जानना ही चाहता है कि कैसे मैं लोगों की मृत्यु से बचूं और कैसे मैं मृत्यु से बचूं, विनाश से बचूं, तो अर्जुन से कृष्ण ने कहा, तू उसे जान ले, जो अव्यक्त के भी पार है।
आचार्य श्री रजनीशOsho
गीता दर्शनअ.8.प्र.7/95
सृष्टि और प्रलय का वर्तुल7

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