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*संपति विपति नहीं मैं मेरा, हर्ष शोक दोउ नांही ।*
*राग द्वेष रहित सुख दुःख तैं, बैठा हरि पद मांही ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*चतुरा नागाजी की पद्य टीका*
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*इन्दव-*
*गेह पधार रखै गुरुदेव हि,*
*सेव करै अति साच दिखावै ।*
*रूपवती तिय टैल१ लगावत,*
*स्वामि कहें सु करो हु सिखावै ॥*
*देखि सनेह रु भोग लख्यो नित,*
*देत वधू घर संपति भावै ।*
*धाम चढाय प्रणाम करी सुख,*
*पाय चले व्रज को उर चावै ॥३८७॥*
आपके गुरु देव घर पर पधारे थे । आप उनको घर पर ही रखकर अति सच्चा प्रेम दिखाते हुए सेवा करने लगे ।
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आपकी स्त्री अति रूपवती और युवती थी । उसको गुरुजी की टहल१ में लगाकर शिक्षा दी कि जो भी स्वामीजी की आज्ञा हो सो सभी ही करना । वह पति आज्ञा के अनुसार सेवा करने लगी ।
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सदा संग रहने से इनकी स्त्री के साथ गुरुजी का प्रेम हो गया । चतुराजी ने उनका अंग संग भी अपने नेत्रों से देख लिया । तब घर, धन और स्त्री को बड़े भाव-प्रेम के साथ गुरुजी के समर्पण करते हुए बोले- ये सब कृपा करके लीजिये ।
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ऐसा कहकर तथा गुरुजी को घर में रखकर धनादि सर्वस्व चढ़ाकर प्रणाम किया और आज्ञा मांगकर हृदय में अति सुख प्राप्त करते हुए उत्साहपूर्वक व्रजभूमि को चले गये ।
(क्रमशः)
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