शनिवार, 30 मार्च 2024

*सारग्राही कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू एकै घोड़ै चढ चलै, दूजा कोतिल होइ ।*
*दुहुँ घोड़ों चढ बैसतां, पार न पहुंचा कोइ ॥*
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*सारग्राही कौ अंग ॥*
पै पाणी भेला पीवै, नहीं ग्यान कौ अंस ।
तजि पाणी पै नैं पिवै, बषनां साधू हंस ॥१॥
जो लोग पय = दूध रूपी ब्रह्मोपासना और पाणी = जल रूपी माया का उपभोग एक साथ करते हैं, उनमें जानिये ज्ञान का लेशमात्र भी अंश नहीं है । इसके विपरीत जो हंस रूपी साधु माया रूपी जल का परित्याग करके ब्रह्म रूपी दूध की उपासना करते हैं वे ही साधु हंसवत् सारग्राही हैं ॥१॥
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कण कड़वी भेला चरै, आंधा बिषई प्राण ।
बषनां पसु भरम्याँ भखै, सुणि भागौत पुराण ॥२॥
जिस प्रकार पशु कण = अन्न के दाने और कड़वी = खाकले को एक साथ खाते हैं, ऐसे ही संसारासक्त विषई प्राणी माया का उपभोग करते हुए परमात्मा की भक्ति भी करते हैं किन्तु इन पशुतुल्य भागवत पुराण के श्रोता भ्रमित लोगों द्वारा भक्ति, सार-संसार का निर्णय करके नहीं की जाती जिससे इनका राग संसार और संसार के सुखों में ही बरकरार रह जाता है और इन्हें परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो पाती है ॥२॥
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*तहाँ पूरिपछि ॥*
सब को कड़बी खात है, बिन कड़बी को नाहिं ।
बषनां क्यूँकरि टालिये, कड़ब कणूका मांहि ॥३॥
सब कोई कड़बी ही खाते हैं । बिना कड़बी खाये कोई रह ही नहीं सकता । बषनांजी कहते हैं, कण कड़बी ही में रहता हैं । अतः किसी भी उपाय से कड़वी का त्याग करके कण को अंगीकार करना चाहिये ।
कण = संसार में अनासक्तभाव से रहते हुए परमात्मभक्ति करना ।
कड़बी = मायाजन्य संसार में रहते हुए उसी में आकंठ डूबे रहना ॥३॥
(क्रमशः)

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