सोमवार, 4 मार्च 2024

*श्री रज्जबवाणी सवैया ~ १३*

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*अवरण आपै अजर अलेख,*
*अगम अगाध रूप नहिं रेख ।*
*अविगत की गति लखी न जाइ,*
*दादू दीन ताहि चित्त लाइ ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३९०)
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३, श्री स्वामी दादू दयाल जी के भेट के सवैया ।
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
कवित्त -
उपमा अनंत भाय१, काहू पै कही न जाय,
कहै कहा जन२ बनाय,
कौन अंग३ के समान, दादूजी बखानिये ।
इन्द्र चन्द्र है समुद्र, एक एक माहिं द्वन्द,
तहां न आनन्दकंद,
मांड४ में शोभा समान कोऊ नहिं जानिये ॥
पारस पोरस सति, कामधेनु पशुगति५,
तिन में न भजन मति,
सदगुरु सम सत्यरूप, इनमें क्या बानिये६ ।
कछु७ नांहिं जगत मांहिं, पटतर८ को कहे जांहिं,
ते न त्रीगुण मय९ समाहिं,
जन रज्जब गुरु गोविन्द, मन बच कर्म मानिये ॥१३॥
दादूजी के अनन्त भांति१ की उपमा लगती है, जो किसी से कही भी नहीं जा सकती । में दास२ बना कर कहूं भी तो क्या कहूँ ? किस शरीर३ के समान दादूजी को कहूं ?
इन्द्र, चन्द्र, समुद्र आदि जो महान् उनमें एक न एक द्वन्द रूप उपद्रव रहता ही है अर्थात यह निर्द्वन्द नहीं हैं । आनन्दकंद ब्रह्म का चिन्तन भी उनके हृदय में नहीं है । ब्रह्माण्ड४ में दादूजी के समान शोभा युक्त कोई नहीं जानने में आता ।
पारस और पोरसा भी सत्य नहीं है,कामधेनु में पशु की सी चेष्टा५ है और उक्त तीनों में भजन करने की बुद्धि तो है ही नहीं । सदगुरु के समान सत्यरूप इनमें कैसे सजाया६ जा सकता है ?
जगत में ऐसे विलक्षण७ कोई भी नहीं हैं जो दादूजी के समान८ कहे जा सकते हैं । वे दादूजी त्रिगुण रूप९ संसार में तो समाते नहीं हैं, वे तो त्रिगुणातीत ब्रह्म में ही समायेंगे । तब त्रिगुण में समाने वालों की उपमा दादूजी को कैसे दी जाय ? अत: गुरु तो गोविन्द रूप ही हैं ऐसा ही मन, वचन, कर्म से मानना चाहिये ।
(क्रमशः)

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