शनिवार, 30 मार्च 2024

*ज्ञानी का ध्यान । जीवन का उद्देश्य*

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*यहु तन भेरा भौजला, क्यों कर लंघे तीर ।*
*खेवट बिन कैसे तिरै, दादू गहर गंभीर ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)ज्ञानी का ध्यान । जीवन का उद्देश्य*
श्रीरामकृष्ण उसी दुमँजले के कमरे में बैठे हुए हैं । पास कोई भक्त भी हैं । डाक्टर और प्रताप के साथ बातचीत हो रही है ।
डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - फिर खाँसी* हुई ? (सहास्य) काशी जाना अच्छा भी तो है ! (सब हँसते हैं) (*बंगला में खाँसी को ‘काशी’ कहते हैं, और काशी बनारस का भी नाम है ।)
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - उससे तो मुक्ति होती है । मैं मुक्ति नहीं चाहता, मैं तो भक्ति चाहता हूँ । (डाक्टर और भक्तगण हँस रहे हैं)
श्रीयुत प्रताप डाक्टर भादुड़ी के जामाता हैं । श्रीरामकृष्ण प्रताप को देखकर भादुड़ी के गुणों का वर्णन कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) – अहा ! वे कैसे सुन्दर आदमी हो गये हैं । ईश्वर- चिन्ता, शुद्धाचार और निराकार-साकार सब भावों को उन्होंने ग्रहण कर लिया है ।
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मास्टर की बड़ी इच्छा है कि कंकड़ और पत्थरों की बात फिर हो । छोटे नरेन्द्र से धीरे धीरे कह रहे हैं, 'कंकड़-पत्थरों की कौनसी बात भादुड़ी ने कही थी, तुम्हें याद है?' मास्टर ने इस ढंग से कहा जिससे श्रीरामकृष्ण भी सुन सकें ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, डाक्टर से) - और तुम्हारे लिए उन्होंने (डा. भादुड़ी ने) क्या कहा है, जानते हो ? उन्होंने कहा कि तुम यह सब विश्वास नहीं करते इसलिए अगले कल्प में कंकड़-पत्थर के रूप में जन्म लेकर तुम्हें आरम्भ करना होगा । (सब लोग हँसते हैं)
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डाक्टर - (सहास्य) - अच्छा, मान लीजिये कि कंकड़-पत्थर से ही आरम्भ कर कितने ही जन्मों के बाद मैं मनुष्य हो जाऊँ, पर यहाँ (श्रीरामकृष्ण के पास) आने से तो मुझे फिर एक बार कंकड़-पत्थर से ही शुरू करना होगा ! (डाक्टर और सब लोग हँसते हैं)
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श्रीरामकृष्ण इतने अस्वस्थ हैं, फिर भी उन्हें ईश्वरीय भावों का आवेश होता है । वे सदा ईश्वरीय चर्चा किया करते हैं । इसी सम्बन्ध में बातचीत हो रही है ।
प्रताप - कल मैं देख गया, आपकी भाव की अवस्था थी ।
श्रीरामकृष्ण - वह आप ही आप हो गयी थी, प्रबल, नहीं थी ।
डाक्टर - बातचीत करना और भावावेश होना, ये इस समय आपके लिए अच्छे नहीं ।
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श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर से) - कल जो भावावस्था हुई थी, उसमें मैंने तुम्हें देखा । देखा, ज्ञान का आकर है, परन्तु भीतर एकदम सूखा हुआ - आनन्द-रस नहीं मिला । (प्रताप से) ये (डाक्टर) यदि एक बार आनन्द पा जायें तो अधः -ऊर्ध्व सब आनन्द से पूर्ण देखेंगे । फिर 'मैं जो कुछ कहता हूँ वही ठीक है, और दूसरे जो कुछ कहते हैं वह ठीक नहीं', आदि बातें फिर ये बिलकुल ही न कहेंगे- और फिर इनकी लट्ठमार बातें भी छूट जायेंगी ।
(क्रमशः)

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