बुधवार, 10 अप्रैल 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४१३

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४१३)*
*राग जैत श्री ॥२६॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४१३. विरह विनती । पंजाबी त्रिताल*
*मेरे जीव की जानै जानराइ, तुमतैं सेवक कहा दुराइ ॥टेक॥
*जल बिन जैसे जाइ जिय तलफत, तुम्ह बिन तैसे हमहु विहाइ ॥१॥*
*तन मन व्याकुल होइ विरहनी, दरश पियासी प्राण जाइ ॥२॥*
*जैसे चित्त चकोर चंद मन, ऐसे मोहन हमहि आहि ॥३॥*
*विरह अगनि दहत दादू को, दर्शन परसन तनहि सिराइ ॥४॥*
*इति राग जैतश्री सम्पूर्ण ॥२६॥*
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हे अन्तर्यामिन् सर्वज्ञ प्रभो ! मेरे मन की सारी परिस्थितियों को तो आप सर्वज्ञ होने से जान ही रहे हैं । क्योंकि आप से कुछ भी गुप्त नहीं है।  जैसे जल के बिना प्यासे आदमी के प्राण बाहर निकलने के लिये उत्कण्ठित हो जाते हैं वैसे ही आपके बिना मेरा समय अत्यन्त व्यथा से पीड़ित होकर पूरा होता है । 
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मेरे प्राण शरीर से बाहर जाने के लिये जल्दी कर रहे हैं । जैसे चकोर के चित्त में चन्द्रमा बसा रहता है वैसे ही मेरे चित्त में मोहन भगवान् बसे हुए हैं । अहो ! इस विरहाग्नि ने तो मुझे जला डाला अतः आप अपने दर्शनों से तथा स्पर्श करके इस विरहाग्नि को शान्त कीजिये ।
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किसी कवि ने कहा है कि –
संगम और विरह में आपको क्या चाहिये ? तो विरह ही अच्छा है । संगम नहीं, क्योंकि संगम से वियोग ऊंची चीज है । मूल्यवान् वस्तु है । पर यह दीर्घदर्शियों की बाते हैं । संगम में एक ही जगह प्रियतम होता है । वियोग में तो सारा विश्व ही प्रियतम हो जाता है । इससे भी ऊंची दशा एक और होती हैं उसमें प्रेमी के संयोग और वियोग दोनों में कष्ट ही होता है । 
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लिखा है कि – 
हे प्राणनाथ ! जब आपके दर्शन नहीं होते तब तक तो दर्शनों की उत्कण्ठा लगी रहती है । दर्शन हो जाने पर अगले क्षण में ही होने वाले वियोग की चिंता लग जाती है । क्या करें, किसी भी तरह चैन नहीं । न दर्शन से ही सुख मिलता है न अदर्शन से । हे सखि ! संयोग वियोग किसी में भी शान्ति नहीं । इस तरह ऊंचे प्रेमियों को दुःख ही दुःख बना रहता है ।
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यह एक विशिष्ट स्थिति हैं कि कितने ही प्रेमियों को संयोग में शान्ति मिलती है । वियोग दशा में उद्वेलित समुद्र की तरह स्थिति होती है । उस समय वह मर्यादा तोड देता हैं । प्रेमी के धैर्य का पुल टूट जाता है । अपनी कान्ता से विरही मनुष्य की दशा का वर्णन है कि –
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महल में वह ही है सब दिशाओं में वह ही कान्ता दीख रही है । पीठ पीछे सामने वह ही है । पिलंग पर तथा सब रास्तों में वह ही नजर आ रही है आश्चर्य है कि वियोग से आतुर मनुष्य की प्रकृति ही बदल जाती है । सुको सब जगह अपनी कान्ता ही कान्ता नजर आती है । यह अद्वैतवाद विलक्षण है । अतः संयोग की अपेक्षा वियोग ही अच्छा है ।
इसी श्रीमद् आत्मारामकृत भावार्थदीपिकायां भाषानुवाद जैतश्री रागः समाप्तः ॥२६॥
(क्रमशः) 

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