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*दादू जब लग मन के दोइ गुण, तब लग निपना नांहि ।*
*द्वै गुण मन के मिट गये, तब निपनां मिल मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अगर हम खाली आकाश को भी थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो खाली आकाश आपको खाली कर देगा। अगर आप फूलों के पास बैठ कर फूलों को थोड़ी देर देखते रहें, तो थोड़ी देर में फूलों की गंध और फूलों की बास आपके भीतर भर जाएगी। और अगर आप सूरज को थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो आप पाएंगे, सूरज का प्रकाश आपके भीतर भी प्रविष्ट हो गया है। और अगर आप सागर की लहरों के पास बैठ कर उन्हें बहुत देर तक अनुभव करते रहें, तो आप पाएंगे, सागर आपके भीतर लहरें लेने लगा है।
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ऐसे ही जब कोई परम पुरुषों की स्मृति में डूबता है, ऐसे ही जब कोई परम पावन प्रतीक पुरुषों के स्मरण से भरता है, तो उसके भीतर कुछ परिवर्तित होने लगता है, कुछ बदलने लगता है, कुछ नई बात का उसके भीतर प्रारंभ हो जाता है। तो मैं इस आशा में महावीर पर थोड़ी सी चर्चा करूंगा कि इस थोड़ी सी देर के सानिध्य में, इस थोड़ी सी देर के उनके स्मरण में, आपके भीतर कोई परिवर्तन प्रभावित हो, आपके भीतर कोई आंदोलन उठे, आपके भीतर कोई आकांक्षा सजग हो जाए, आपके भीतर कोई बीज अंकुरित होने लगे और आपके भीतर नये जीवन को, वास्तविक जीवन को पाने की आकांक्षा उत्पन हो जाए।
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यह हो सकता है। यह प्रत्येक मनुष्य के लिए संभव है। प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर उन्हीं संभावनाओं को लिए हुए है, जो महावीर में हम परिपूर्णता पर पहुंचा हुआ अनुभव करते हैं। जो महावीर के लिए विकसित हो गया है, वह हमारे भीतर बीज की भांति मौजूद है। इसलिए कोई अपने दुर्भाग्य को न कोसे और कोई यह न समझे कि हम असमर्थ हैं उतनी ऊंचाइयों में उठने में। और कोई यह न सोचे कि हमारा काम एक है कि हम महावीर की पूजा करें।
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महावीर की पूजा करना किसी का भी काम नहीं है। काम तो यह है कि हर एक महावीर बनने की तरफ विकसित हो। और महावीर की पूजा भी अगर सार्थक है तो इसी अर्थों में कि हम क्रमशः उस पूजा के माध्यम से भी महावीर की तरफ, महावीर की भांति ऊंचे उठने में समर्थ हो जाएं। इसे स्मरण रखें, कोई मनुष्य केवल पूजा करने को पैदा नहीं हुआ है। और अगर कोई मनुष्य केवल पूजा करने को पैदा हो, तो इससे बड़ा मनुष्य का अपमान क्या होगा ?
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हर मनुष्य महावीर बनने को पैदा हुआ है। कोई मनुष्य केवल पूजा करने को पैदा नहीं हुआ। हर मनुष्य इसलिए पैदा हुआ है कि जो एक के जीवन में विकसित हो सका है, वह प्रत्येक के जीवन में विकसित हो जाए। तो मैं तो ऐसे ही देखता हूं, यहां इतने लोग इकट्ठे हैं, ये सब कभी न कभी महावीर हो जाएंगे। मैं ऐसे ही देखता हूं कि जितने लोग जमीन पर हैं, वे कभी न कभी सब महावीर हो जाएंगे।
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अगर उनमें से एक भी महावीर बनने से चूक गया- यह कैसे संभव हो सकता है? अनंत काल लग सकते हैं, अनंत समय लग सकता है, लेकिन यह असंभव है कि हममें से कोई भी महावीर बनने से चूक जाए। यह असंभव है कि जो बीज हमारे भीतर है परमात्मा का, वह एक दिन तक परमात्मा न हो जाए। वह एक दिन परमात्मा होगा। यह हो सकता है कि महावीर में और आपके महावीर बनने में हजारों वर्ष का फासला हो जाए।
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यह हो सकता है कि महावीर के महावीर बनने में और आपके महावीर बनने में अनंत जन्मों का फासला हो जाए। लेकिन इससे कोई बहुत अंतर नहीं पड़ता है। इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता है। अनंत यह काल है, इसमें हजारों वर्षों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। अनंत यह काल है, इसमें अनंत जन्मों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।
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तो महावीर का स्मरण मुझे इसलिए आनंद से भर देता है कि वह हमारे भीतर जो महावीर की संभावना है, उसका स्मरण है। महावीर का विचार करना इसीलिए सार्थक है, उपयोगी है कि उसके माध्यम से हम उस संभावना के प्रति सजग होंगे, जो हमारे भीतर सोई हुई है और कभी जाग सकती है। अगर आपके भीतर उनका विचार उनके जैसे बनने का भाव पैदा न करता हो, तो उनका विचार व्यर्थ हो जाता है।
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तो आज की सुबह मैं आपको यह कहना चाहूंगा, महावीर की पूजा ही न करें, महावीर बनने की आकांक्षा के बीज अपने भीतर बोएं और यह संकल्प अपने भीतर पैदा करें कि मैं उन जैसा बन सकूं। और इसमें, इस आकांक्षा में, इस संकल्प में जो भी सहयोगी हो, जो भी उसकी भूमिका बनाने में समर्थ हो, उस भूमिका को, उस आचरण को, उस विचार को, उस जीवन-चर्या को अंगीकार करें।मैं ऐसा ही देखता हूं, दुनिया में दो तरह के महापुरुष हुए हैं।
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एक महापुरुष वे हैं, जिन्होंने बहुत बड़े-बड़े विचार दिए हैं। दूसरे महापुरुष वे हैं, जिन्होंने बहुत बड़ा आचरण दिया है, बहुत बड़ी चर्या दी है। महावीर पहले तरह के महापुरुष नहीं हैं। महावीर दूसरे तरह के महापुरुष हैं, जिन्होंने एक बहुत महान चर्या दी है। एक बहुत बड़ा आचरण दिया है, एक जीवन दिया है। निश्चित ही, बड़े विचार देना उतना मूल्य का नहीं है, जितना बड़ा जीवन देना है। निश्चय ही, बहुत बड़े चिंतन को जन्म दे देना उतना मूल्य का नहीं है, जितना महान चर्या को जन्म दे देना है।
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विचार तो स्वप्न की भांति हैं। विचार का कोई मूल्य नहीं है, वे तो पानी पर खींची गई रेखाओं के समान हैं। चर्या का मूल्य है। चर्या पत्थर पर खींची गई रेखा है। महावीर का, जो हमारे स्मरण से विलीन नहीं होते हैं वे, उसका कारण है। हमारे हृदयों पर उनकी चर्या ने एक लकीर खींच दी है- उनके आचरण ने, उनके जीवन ने। महावीर को विचारक न कहें। महावीर विचारक नहीं हैं। महावीर एक साधक और सिद्ध हैं। साधक और विचारक में यही अंतर है। विचारक सोचता है, सत्य क्या है ? साधक जीता है। विचारक सत्य के संबंध में सोचता है, साधक सत्य को जीता है।
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हमने अपने इस देश में विचारकों की बहुत कीमत नहीं मानी। बहुत बड़े-बड़े विचारक हुए हैं, जिन्होंने बड़ी दूर की बातें कही हैं- सृष्टि की, सृष्टि के बनने की, परमात्मा की, स्वर्ग की, नरक की, बड़ी-बड़ी विचार की बातें कही हैं। महावीर इन विचारकों में से नहीं हैं। महावीर बहुत सुदृढ़ भूमि पर खड़े हुए हैं। वे अपनी सारी चर्या को बदल रहे हैं। और यहां इस बात को भी मैं आपसे कह दूं, जो व्यक्ति मात्र विचार करता है, वह सत्य के संबंध में विचार करता है। और जो व्यक्ति जीवन में सत्य को उतारता है और आचरण करता है, वह सत्य के संबंध में विचार नहीं करता, वह आनंद के संबंध में साधना करता है।
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महावीर सत्य के खोजी नहीं हैं, महावीर आनंद के खोजी हैं। सत्य का खोजी एक दार्शनिक होता है, एक तत्व-चिंतक होता है। आनंद का खोजी एक योगी होता है। महावीर आनंद की खोज कर रहे हैं। और इसलिए यह हो सकता है कि कोई विचार कभी गलत हो जाए, यह कभी नहीं हो सकता कि आनंद गलत हो जाए। इस जमीन पर विचार की दृष्टि से हम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, आपका विचार दूसरा हो सकता है, मेरा विचार दूसरा हो सकता है। लेकिन आनंद की तलाश में हम भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते। सब की तलाश आनंद की है।
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इसलिए महावीर का धर्म सार्वजनीन, सार्वलौकिक धर्म है। इस जगत में जो भी आनंद को खोजना चाहेगा, उसे महावीर के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। महावीर अगर विचारक होते तो कुछ थोड़े से लोगों के मतलब की उनकी बात होती, जो उनके विचार से सहमत होते। जो उनके विचार के विरोध में होते, उनके लिए कोई मतलब न रह जाता। इसलिए विचारकों के पंथ होते हैं, योगियों का कोई पंथ नहीं होता।
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विचारकों के संप्रदाय होते हैं, आनंद के खोजियों के कोई संप्रदाय नहीं होते। क्योंकि आनंद के लिए तो सारा जगत खोज कर रहा है। उस संबंध में कोई मतभेद नहीं है। एक छोटे से कीटाणु से लेकर मनुष्य तक सभी आनंद की तलाश कर रहे हैं। आनंद के संबंध में दो मत नहीं हैं, कोई विरोध नहीं है। इसलिए विचार ऊपरी बात है, आनंद की खोज बहुत गहरी बात है।
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अगर मैं आपसे यह कहूं कि आपके सामने दो विकल्प हैं- क्या आप परिपूर्ण आनंद उपलब्ध करना चाहते हैं या कि परिपूर्ण विचार उपलब्ध करना चाहते हैं ? अगर आपके सामने दो विकल्प हों, अगर आपके सामने दो विकल्प खड़े हो जाएं कि क्या आप जानना चाहते हैं कि जगत-सत्य क्या है ? या कि आप होना चाहते हैं कि परिपूर्ण आनंद क्या है ? तो मैं नहीं समझता कि आपके हृदय सत्य को जानने की गवाही देंगे। आपके हृदय कहेंगे, हम पूर्ण आनंद को उपलब्ध होना चाहते हैं।
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सत्य को भी इसीलिए खोजा जाता है कि पूर्ण आनंद की तलाश में वह सहयोगी हो जाए। सत्य का अपने में क्या मूल्य है ? सत्य का अपने में कोई मूल्य नहीं है सिवाय इसके कि सत्य की उपलब्धि से हम सोचते हैं कि पूर्ण आनंद के आधार रखे जा सकेंगे।
ओशो

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