सोमवार, 8 अप्रैल 2024

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*मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ ।*
*जब दादू बाणक बण्या, तब आशय आसण होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अगर तुम यह मान कर बैठे हो कि यह होनेवाला नहीं है; समाधि मुझे लगेगी नहीं; परमात्मा का दर्शन मुझे होगा नहीं; अविनाशी से मिलन मेरा होनेवाला नहीं है; अगर तुमने ऐसी धारणा बना रखी है, तो नहीं होगा। वही होता है, जिसके लिए तुम धारणा बनाते हो। खयाल रखना इस पर। तुम्हारी धारणा तुम्हारा भविष्य है। तुम्हारी धारणा तुम्हारी नियति है। इसलिए नकारात्मक धारणाएं मत बनाना।
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नास्तिक को परमात्मा कभी नहीं मिलता। इसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा नहीं है। नास्तिक यही सोचता है कि अगर होता, तो मिलता। अब तक नहीं मिला, तो नहीं है। नास्तिक को परमात्मा नहीं मिलता–नास्तिकता की धारणा के कारण। नास्तिकता की धारणा–अगर परमात्मा मिल भी जाए, तो भी उसे देखने न देगी; वह कुछ और देख लेगा; वह व्याख्या कुछ और कर लेगा।
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मैंने सुना है: शिरडी के सांई बाबा तो मस्जिद में पड़े रहते थे। किसी को पक्का पता नहीं कि वे हिंदू थे, कि मुसलमान थे। किसी संत का किसको पता चल सकता है ?–कि हिंदू, कि मुसलमान ? सीमाएं नहीं, वहीं तो संत है। मस्जिद में आने के पहले एक मंदिर में ठहरना चाहा था उन्होंने, लेकिन मंदिर से पुजारी को पक्का नहीं हुआ कि आदमी कौन है, कैसा है, तो उसने हटा दिया। तो वे मस्जिद में ठहर गये। क्या मंदिर, क्या मस्जिद ! सब अपने हैं। मस्जिद में किसी ने हटाया नहीं, तो रुके रहे; वही घर बन गया।
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लेकिन एक ब्राह्मण साधु रोज उनके दर्शन करने आता था और दर्शन के बाद ही जाकर भोजन करता था। कभी-कभी ऐसा हो जाता, कि भीड़ होती भक्तों की और दर्शन में देर हो जाती, लेकिन जब तक वह पैर न छू ले, तब तक भोजन न करता। कभी-कभी सांझ भी हो जाती, तब दर्शन हो पाते, पैर छू पाता; लौटता; तब कहीं जा कर भोजन कर पाता। सांई बाबा ने एक दिन उसे कहा की प्यारे, तू इतना परेशान न हो; मैं वही आ कर तुझे दर्शन दे दूंगा। वह तो बड़ा खुश हुआ। उसने कहा, तो कल मैं वहीं प्रतीक्षा करूंगा। धन्यभाग मेरे कि आप मुझे वहां दर्शन दे देंगे !
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दूसरे दिन जल्दी ही सुबह-सुबह नहा-धो कर भोजन तैयार करके बैठ गया अपने द्वार पर–सांई बाबा के दर्शन करने के लिए। कोई आया नहीं; आया एक कुत्ता। और कुत्ता भीतर घुसने की कोशिश करने लगा और वह डंडा लेकर उसको भगाने की कोशिश करे लगा–कि कहीं यह सब अपवित्र न कर दे और कहीं भोजन में मुंह न लगा दे। और सांई बाबा अभी आये नहीं। उसने दो-चार डंडे भी कुत्ते को जमा दिए। कुत्ता बड़ी कोशिश किया; डंडे खाने के बाद भी भीतर घुसने की कोशिश कर रहा था।
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जब सांई बाबा नहीं आये, सांझ होने लगी, तो भागा हुआ ब्राह्मण आया। और उसने कहा कि आप आये नहीं! वचन दिया; पूरा नहीं किया। उन्होंने कहा, मैं गया था। और यह मेरी पीठ देख ! चार डंडे तूने लगा दिए। और मैं फिर भी घुसने की कोशिश करता था, मगर तू घुसने ही नहीं देता था। तब तो वह रोने लगा। तब उसे याद आया; तब उसे याद आया–कि उसने गौर से नहीं देखा।
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कुत्ते में कुछ खूबी तो थी; कुत्ता कुछ साधारण तो नहीं था। अब याद आया; पीछे ले लौट कर याद आया। कुछ बात अजब की थी कुत्ते में; कुछ ध्वनि गजब की थी। कुछ ऐसा ही एहसास हुआ था, जैसा सांई बाबा की उपस्थिति में अहसास होता हैं। लेकिन मैं ना-समझ; मैं मंदबुद्धि; समझा क्यों नहीं! रोने लगा। कहा, क्षमा करें। कल एक बार और मौका दें। अब ऐसी भूल न करूंगा। साई बाबा ने कहा, तेरी मरजी; कल आयेंगे।
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तो वह बैठा–अब वह कुत्ते की राह देखता बैठा। हमारी धारणाएं ! अब वह देख रहा है कि कहीं कोई कुत्ता आ जाए। कोई कुत्ता दिखाई न पड़े! दूर दूर तक सन्नाटा। ऐसे कभी-कभी आवारा कुत्ते निकलते भी थे; हिंदुस्तान में कुछ कभी भी नहीं है–आवारा कुत्तों की। उस दिन सब नदारत ही हो गये ! वह बैठा है थाली सजाये कि आज कुत्ता आये, तो थाली से लगा दूं। पहले कुत्ते को भोजन कराऊं फिर मैं करूं।
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कुत्ता नहीं आया–सो नहीं आया। आया एक भिखारी, और वह भी कोढ़ी। और बड़ी दुर्गंध उससे आती थी। और वह चिल्लाया दूर से भाई, इधर न आ ! बाहर रह। आगे जा। अभी हम दूसरे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तू यहां खड़ा ही मत हो। मगर फिर भी उसने घुसने की कोशिश की। तब तो वह नाराज हो गया, ब्राह्मण। उसने कहा, मैं कहता हूं: आगे जा, अंदर मत घुस। सिर फोड़ देंगे। अभी हम किसी और की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अपशकुन मत कर।
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सांझ हो गई; सांई बाबा का कोई पता नहीं। वह फिर पहुंचा। सांई बाबा ने कहा, भाई, तू न पहचानेगा। हम आये थे; तूने घुसने न दिया। उन्होंने कहा, महाराज, आप गलत कह रहे हैं; मैं बिलकुल टकटकी लगा कर देखता रहा। एक भिखारी जरूर आ गया था बीच में; उसको मैंने हटाया कि कहीं इसकी बातचीत मग और मैं चूक न जाऊं कि आप आए कुत्ते के रूप में और निकल जाए, और फिर चूक हो जाए। सांई बाबा ने कहा, मैं उसी भिखारी के रूप में आया था।
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हम वही देखते हैं, जो हमारी धारणा है। अगर तुमने मान लिया कि ईश्वर नहीं है, तो ईश्वर नहीं है। फिर ईश्वर लाख उपाय करे, नाचे तुम्हारे सामने आकर, तुम कहोगे–नहीं है। तुम कुछ और देखोगे। तुम व्याख्या कर लोगे कुछ। तुम समझोगे, कोई आदमी पागल हो गया है। या तुम समझोगे कि मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं, कि मैंने कुछ भांग इत्यादि तो नहीं खा ली है ? यह हो कैसे सकत है ?
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अगर तुमने मान लिया है कि कभी नहीं होगा, तो कभी नहीं होगा। तुम मालिक हो। तुम्हारे विपरीत यहां कुछ भी नहीं हो सकता। मैं तुमसे यही कहता हूं कि अभी हो सकता है, यहीं हो सकता है। तुम्हारी मरजी। यूं मिले थे, मुलाकात हो न सकी। ओंठ कांपे मगर बात हो न सकी। बात करने को भी क्या है ? परमात्मा मिलेगा, तो क्या बात करोगे ? कुछ कहने को होगा? ओंठ कंप जाए, काफी है। ओंठ कंप जाए, काफी ज्यादा। और क्या करोगे ? कहने को है क्या ?
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आंसू बह जाए–बस बहुत। नाच लो–बस बहुत यूं मिले थे, मुलाकात हो न सकी। मुलाकात का क्या है ? कहने को कुछ भी तो नहीं है हमारे पास। देने को कुछ भी नहीं है हमारे पास। पूछने को कुछ भी नहीं है हमारे पास। लेकिन अगर तुम मुलाकात में उत्सुक हो, तुम अगर परमात्मा का कोई साक्षात्कार लेना चाहते हो, तो चूक हो जायेगी। परमात्मा जिस रूप में आये, जैसा आये; और जिस रूप में तुम्हारे भीतर उस क्षण सहज स्फुरण हो, वही सच है, वैसा ही सच है।
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ओठ कंप जाए–बहुत। न कंपे, तो भी बहुत। चुप रह जाओ–बहुत। आंख खुल जाए–बहुत। आंख बंद हो जाए–बहुत। बोलो–तो ठीक; न बोलो–तो ठीक। इतनी भर श्रद्धा चाहिए–कि होगा।
ओशो

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