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*अपना भंजन भर लिया, उहाँ उता ही जाण ।*
*अपणी अपणी सब कहैं, दादू बिड़द बखाण ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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दर्द दीवाने बावरे…संन्यासी की पहली परिभाषा, कि जो प्रभु के विरह और मिलन की पीड़ा में मस्त है। समझना–विरह और मिलन की पीड़ा में मस्त। दर्द दीवाने बावरे…। प्रभु को पाया है, तब तक दर्द है–यह तो सच है। प्रभु को पा कर भी बहुत दर्द होता है। दर्द का गुण बदल जाता है, दर्द नहीं बदलता। मीठा हो जाता है दर्द।
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दर्द का दंश चला जाता है, बड़ी मिठास आ जाती है, मधुमय हो जाता है। प्रभु के विरह में एक दर्द है, जैसे कांटा चुभता है; प्रभु के मिलन में भी एक दर्द है, जैसे घाव पर किसी ने फूल रख दिया। मगर दर्द दोनों हैं। संन्यासी इस दर्द में मस्त है और संसारी इस दर्द को भुलाने की चेष्टा मग लगा है। संसारी का अर्थ है: जो इस बात को भुलाने की चेष्टा में लगा है कि प्रभु के न मिलने से कोई दर्द होता है।
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संसारी इस खोज में लगा है कि मैं किसी तरह प्रभु को भुलाने में पूरी तरह समर्थन हो जाऊं। पीठ किये है प्रभु की तरह। जीवन क्या है, जीवन का सत्य क्या है–इस सबकी तरफ पीठ किये है। खिलौनों से खेल रहा है। पीठ करने का कारण है। यह याद भी आ जाये कि प्रभु है, तो पीड़ा शुरू हो जाती है। इस याद के साथ ही तुम्हारे जीवन में क्रांति का सूत्रपात होता है।
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और प्रभु है, तो फिर तुम क्या कर रहे हो–धन बटोर कर? अगर प्रभु है, तो दुकान चला कर तुम क्या कर रहे हो ? अगर प्रभु है, तो पद-प्रतिष्ठा पा कर तुम क्या कर रहे हो ? अगर प्रभु है, तो फिर सारी जीवन-ऊर्जा उसी की दिशा में लगा दो, क्योंकि उसी को पाने से कुछ पाया जायेगा और तो कुछ भी पाने से कुछ न होगा।
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मगर प्रभु है, यह बात ही पीड़ादायी है। प्रभु है और मुझे तो मिला नहीं, तो पीड़ा तो होगी। प्रभु है और मैं क्या करता रहा जन्मों-जन्मों तक, मैं कहां भटकता रहा, मैं किन दुःख स्वप्न में खोया रहा ? प्रभु है और मैंने उसके द्वार पर दस्तक भी न दी ! तो पीड़ा होगी। इस पीड़ा से बचने की जो कोशिश करता है, वह संसारी है।
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इस पीड़ा में जो मस्त हो जाता है; जो कहता है: धन्यभागी मैं, चलो यह भी क्या कम है कि मुझे प्रभु-विरह की पीड़ा हुई ! प्रभु-विरह आ गया, तो मिलन भी आता ही होगा; पतझड़ आ गई, तो वसंत भी ज्यादा दूर ही होगा–प्रभु-विरह की पीड़ा में जिसे मस्ती आ गई, जो नाच उठा; यद्यपि उसके नाच में आंसू मिले होगे–मिश्रित होंगे आंसू, लेकिन अब बड़ी पुलक से भरे होंगे, बड़े उत्साह से भरे होगे, आंसू बस, आंसू ही न होंगे अब।
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संसार को पाकर तुम हंसो भी, तो हंसी में कुछ खास हंसी नहीं होती, क्योंकि तुम्हारी हंसी में भी मौत हंसती है। और प्रभु को खोया है, प्रभु को खोये बैठे हैं, ऐसी पीड़ा में तुम रोओ भी, तो तुम्हारे आंसुओं में रुदन नहीं होता; मिलन की छाया पड़ने लगती है, मिलन के प्रतिबिंब बनने लगते हैं।
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दर्द-दीवाने बावरे, अलमस्त फकीर।
जो प्रभु के विरह और मिलन के दर्द में मस्त है–संन्यासी। जो कहता है: प्रभु मुझे मिला नहीं, लेकिन यह भी क्या है कि मुझे याद आ गई कि प्रभु मुझे मिला नहीं। अगर यह हो गया तो मिलन भी होगा। विरह की रात कितनी लंबी हो सकती है ? आखिर की सुबह भी होगी। विरह है, तो मिलन है। विरह ही नहीं, तो फिर मिलन का कोई उपाय नहीं।
ओशो

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