सोमवार, 8 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १७/२०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १७/२०*
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गाड़ी चालै समंद मैं, पहिया अटक्या बीच ।
जगजीवन जांणै नहीं, पाणीं माहीं कीच५ ॥१७॥
{५. कीच=कीचड़(कर्दम)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवन नौका भव सागर में अटक रही है करम रुपी कीचड़ में उसके पहिये अटके पड़े हैं । इसे जीव नहीं समझ पा रहा है ।
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सारंग सलभा६ बास अलि, झष७ नागा८ नर देह ।
कहि जगजीवन रांमजी, भिन भिन स्वाद सनेह ॥१८॥
(६. सलभा=पतंग) (७. झष=मछली) (८. नागा=हाथी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दीपक संग पतंगा, खुशबु के संग भ्रमर, रहते हैं । जल में मछली । वन में गज । व संसार में मनुष्य सभी अपनी प्रकृति के अनुसार रहते हैं ।
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क्रिपा तुम्हारी ऊबरै, दया मिहिर भजि नांम ।
पंचन मांही पंच दिन, जगजीवन कहै रांम ॥१९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आप की कृपा से ही जीव का उद्धार होता है । व दया वापकी कृपा हो तब ही भजन होता है । यह जीव संसार के गणमान्यजन के सानिध्य में आकर भी पांच दिन अर्थात थोड़े दिन ही भजन करता है ।
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संक्या सूर संग्राम कूं, केते गये बखांण ।
जगजीवन प्रकिति जुगल, त्याग उभै उर आंण ॥२०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव शंका रुपी द्वन्द्व में जब पड़ता है तो उसका वर्णन व परिणाम कितने ही विद्वजन द्वारा कहा गया है । इसे करुं या त्याग दूं यह दोनों प्रवृति जीव में आती है ।
(क्रमशः)

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