🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 卐 *सत्यराम सा* 卐 🙏🌷
🌷🙏 *#बखनांवाणी* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
.
*आपै आप प्रकासिया, निर्मल ग्यान अनंत ।*
*खीर नीर न्यारा किया, दादू भजि भगवंत ॥*
=============
*उत्तर ॥*
देही का गुण बीसरै, एकटगी रहि जाइ ।
बषनां सोई सन्तजन, कड़ब टालि कण खाइ ॥४॥
शरीर के गुणों = भोग-विलासों को विस्मृत करके, एकटगी = एकटक = निर्निमेष = अनन्यभाव से परमात्म-चिन्तन में चित्त की वृत्ति को लगा दे, वही संत है और यही आचरण कड़बी टालिकर कण को खाना है = शरीर के गुणों की विस्मृति, सकामता का त्याग और एकमात्र परमात्मा का चिन्तन है ॥४॥ पाठान्तर एकटगी = एकरंगी ।
.
*प्रमाण श्रीदादू बचन ॥*
पहिली न्यारा मन करै, पीछै सहज सरीर ।
दादू हंस बिचार सूँ, न्यारा कीया नीर ॥१७/४॥
आपै आप प्रकासिया, निर्मल ग्यान अनंत ।
खीर नीर न्यारा किया, दादू भजि भगवंत ॥१७/५॥
सर्वप्रथम मन को संसार तथा संसार के विषय भोगों के चिंतन से अलग करे । तत्पश्चात् शरीर को सहज में = अनासक्त भाव से बरतने = व्यवहृत होने दे । तत्पश्चात् साधक रूपी हंस विचार = सत्यासत्य निर्णय के द्वारा दूध और पानी = नित्यानित्य पदार्थों का पृथक्कीकरण करके नीर रूपी नित्य परमात्मा का अपरोक्ष कर लेता है ॥१७/४॥
दादूजी महाराज कहते हैं, भगवान् का भजन करके साधक क्षीर और नीर को अलग-अलग करने में समर्थ होने के साथ-साथ निर्मल और अनंत ज्ञानवान हो जाता है जिससे आप = स्वयं में ही स्वयंस्वरूप = निजात्मा रूप परमात्मा का प्रकाश हो जाता है; परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है ॥१७/५॥
.
*संत पारिष कौ अंग ॥*
येकहि कानी जीवताँ, दूजी म्रत्तक होइ ।
मन मचला मनसा पांगुली, बषनां बिरला कोइ ॥५॥
बषनांजी कहते हैं, वे विरले ही होते हैं जो माया और माया जन्य संसार तथा संसार के भोग-विलासों से सर्वथा विमुख होकर एकमात्र परब्रह्म-परमात्मा के ही रंग में रंग जाते हैं । वस्तुतः ऐसे संतो का मन अचल तथा मनसा = मन की वृत्ति संसार तथा संसार के भोगों का चिंतन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाती है ॥५॥
इति सारग्राही कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ९०॥साषी १६३॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें