शनिवार, 6 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १३/१६*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १३/१६*
मंगल गावौ पीवौ माठा, डीबी१ मांहै पाकै भाठा ।
खाइ पिवै घरि आवै जाइ, जगजीवन कहै पूछै ताहि ॥१३॥
(१. डीबी=डिबिया । धातु का बना ढक्कनदार छोटा पात्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार में जीव आता है तो उसका पोषण खाने पीने से ही होता है । ज्ञानी जन प्रभु का धन्यवाद रुपी मंगल गाते हैं उनके द्वारा दिया ज्ञानामृतपान करते हैं व आत्मरुपी डिब्बी में पका हुआ भजनरुपी भात या भोजन करते हैं । बिना ज्ञान के वह जीव संसार से यूं ही चला जाता है । 
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गोरख ने गोरस पीया, माता गोबर थापि२ ।
गाय बियांणी आंगणै, जगजीवन रस धापि३ ॥१४॥
(२. गोबर थापि=गोबर के उपले बनाना)   (३. धापि=रस पीकर सन्तुष्ट होना) संतजगजीवन जी कहते हैं कि संतगोरखनाथ जी महाराज ने तो संसार रुपी धेनु से अमृत पान किया । संत के तो मन रुपी आंगन में ही अमृत दात्री ज्ञान गौ प्रसूता हुयी तो वे आनंद पूर्वक इस आनंद से तृप्त हो रहे हैं ।
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घर मांही साठौ नहीं, बालक मांगै छाक ।
जगजीवन गोरस धर्या, चौबारा की ताक४ ॥१५॥
{४. ताक=ताखा(आला)}  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह रुपी घर में तो ज्ञान रुपी अमृत की बूंद भी नहीं है । और जीव इससे तृप्त होना चाह रहा है है जीव इस हेतु प्रयास कर गुरु बता रहें है कि इस संसार रुपी आंगन में थोड़े शीर्ष पर थोड़ी पवित्रता से  ज्ञान है उसे पा ले उसके लिये हेयता व अपवित्रता त्याग । और उसे प्राप्तकर संतुष्ट हो ।
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गाड़ी चालै समंद मैं, मछली खैंचैं ताहि ।
हरि भज राखौ घाट मैं, (ताकी) जगजीवन बलि जाहि ॥१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं जीवन रुपी नौका भव सागर मेंअटकी पड़ी है जिसे संसार में लिप्त जीव आगे बढाने का प्रयास कर रहे हैं । हे  प्रभु  परमात्मा का स्मरण मन रुपी घाट में होगा जिनके वे ही पार पायेंगे हम उनकी बलिहारी हैं ।
(क्रमशः)

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